अवसाद : सभी संवेदनशील लोग इस दुनिया से आत्महत्या करके जा रहे हैं।
कोरोना संक्रमण के समय अवसाद की बीमारी का प्रभाव भी बढ़ रहा है। मनुष्य को अवसाद घेर रहा है। इसके कारण अनेक हो सकते हैं। अनेक कारणों से अनेक लोगों में अलग-अलग तरह से अवसाद फैल रहा है। सबके निजी कारण हैं...
पारिवारिक और व्यक्तिगत कारण हैं। सामाजिक और सरकारी कारण हैं। आम जिंदगियों में अवसाद की बीमारी चुपके से प्रवेश करती है। अमूमन किसी को अहसास भी नहीं होने पाता कि उन्हें अवसाद हो गया है ? कि अवसार की बीमारी की गिरफ्त मे आ चुके हैं। हतोत्साहित करने की बात यह है कि समाज , परिवार और सरकार को भी अवसाद गंभीरता से समझ मे नहीं आ रहा है , इनकी संवेदनशीलता पर भी बड़े गंभीर सवाल हैं। असल में परिवार , समाज और सरकार ही अवसाद के लिए प्रमुख जिम्मेदार हैं।
समय जैसे - जैसे आगे बढ़ रहा है। वैसे - वैसे संवेदनशीलता मरती जा रही है। घर - परिवार में लोग अकेले रहने लगे हैं। अकेलापन बढ़ता जा रहा है। मनुष्य के अंदर अकेलापन अपनी जगह बनाता जा रहा है। उसका आकार बड़ा होता जा रहा है। घर - परिवार के रिश्तों मे भी भारी गिरावट आई है। पीढ़ियों का अंतर भी इसका बड़ा कारण है। माता-पिता और बच्चों व बच्चों के बच्चों के समय में बड़ा अंतर आ चुका है। पीढ़ियों का यही बड़ा भारी अंतर है।
समय इतनी तेजी से गतिशील हुआ है कि पिता - पुत्र के विचारों मे भी बड़ा अंतर आ गया है। एक असंवेदनशील पिता के बीच संवेदनशील बच्चा पिसने लगता है , उसकी जिंदगी की खुशियां असंतुलन में धुंआ - धुंआ होने लगती है। चूंकि पिता अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीते हैं और बच्चा उनके लिए कर्तव्य मात्र रह जाता है , बामुश्किल नाम बड़ा होने की वजह से भी बहुत से पिता अपने बच्चे के प्रति कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। वे बेटे को जीवन जीने के लिए आर्थिक मदद भी कद - पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रदान करते हैं , उस पर भी उनके मूड पर निर्भर करता है। कुछ उनकी परिस्थिति पर भी !
एकाध केसस ऐसे भी सामने आए हैं , जिनमें पिता की असंवेदनशीलता कभी समाप्त हुई ही नहीं। वह पिता हमेशा अपनी ही चाल चलता रहा भले बच्चों की जिंदगी तबाह हो जाए। यहीं पर बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसे पिता बच्चे जन्म देते ही क्यों हैं ? उन्हें पिता बनना इतना जरूरी क्यों हैं ? बच्चे जन्म देने से पहले सोचना चाहिए कि यदि आपको असंवेदनशील जिंदगी जीनी है तो बच्चों का जन्म क्यों ? महज जनसंख्या बढ़ाने के लिए ? या फिर असुरक्षा के भाव से एक से अधिक बच्चों को जन्म देना ? अथवा मर्द साबित होने के लिए एक बच्चे को जन्म देना ? हाँ समाज मर्दानगी उस पल ही साबित होती है जब एक बच्चा हो जाता है अन्यथा मुहल्ले वाले नपुंसक होने का सवाल पैदा कर देते हैं !
ये समाज का चरित्र है। एक मुहल्ले का चरित्र है। जैसे लड़की बड़ी नहीं हुई कि बगले वाले को शादी की फिक्र सताने लगती है। अरे कब शादी होगी ? बहुत बड़ी हो गई है। सचमुच अगर कोई राक्षस है तो मुहल्ले वाला - वाली राक्षस है। राक्षसी प्रवृत्ति यही है जो मनुष्य के अंदर के व्यवहार से पता चलती है। समाज में अवसाद का सबसे बड़ा कारण मुहल्लादारी है , जो सकारात्मक ना होकर नकारात्मक हो चुकी है। असल मे यहाँ दोस्ती से ज्यादा दुश्मनी का भाव प्रबल हो चुका है। समाज बेहद असंवेदनशील हो चुका है। मतलबपरस्ती में लोग दूसरे के जीवन में ऐसी दखलंदाजी कर रहे हैं जिससे किसी का जीवन संवरना तो दूर बल्कि जीवन अवसाद से ग्रस्त हो जाता है।
परिवार के अंदर रिश्तों में दूरियां बढ़ चुकी हैं। रिश्तेदारियां वैसे भी दहेज की नींव पर टंगी हुई हैं , जिन रिश्तेदारियों में दिलदारी से ज्यादा दिलचस्पी पैसे मे थी उनमें प्रेम महज दिखावा से अधिक कुछ होता नहीं। सब मतलबपरस्ती में एक-दूसरे से हित साधते हुए रिश्ता निभा रहे होते हैं ! , रिश्ता जी कहाँ रहे होते हैं ?
ज्यादातर युवाओं में पिता अवसाद के बड़े कारण हैं। जिसका प्रभाव बचपन से ही पड़ जाता है। एक पत्रकार पिता को हाल ही मे देखा था कि वह अपने बच्चे को पढ़ने के लिए क्रूरता से पीट रहा था। उस पिता का क्रूर चेहरा आज भी सामने आ जाता है , साफ पता चल चुका था कि पिता बनने योग्य नहीं था परंतु जैविक क्रिया से बाप बन गया है। एक कोमल देह को क्रूरता से पीटकर युवावस्था तक कोमल मन में क्रूरता का भय भर दिया जाता है। जिसका असर जीवन भर बच्चे मे कभी ना कभी जरूर पड़ता है। एक पिता को गलती होने पर दंड देने का ज्ञान होना चाहिए नाकि क्रूरता से बच्चे की पिटाई होनी चाहिए।
ऐसे ही एक परिवार का ज्ञान होना चाहिए कि खुशहाल परिवार कैसे हो ! बच्चे सुख से घर के अंदर कैसे रहेंगे ? उनकी प्रगति में परिजन या पिता ही बाधक ना बनें। आज महामारी के समय में अवसाद बड़ा घातक विस्तार हो रहा है जो संतुलित परिवार नहीं हैं उनके भविष्य में बुरे हालात होने जा रहे हैं , जिसमें सरकार और राजनीति की तैयारी नगण्य नजर आती है। चूंकि समाज भी वैसा नहीं रहा जैसा समाज होना चाहिए।
सरकार चाह ले तो गांव और परिवार तक अवसाद के कारणों का पता लगाए। वह भी ईमानदारी से हो चूंकि बेइमानी हमारी पहचान बन चुकी है। बगैर भ्रष्टाचार के कोई भी योजना आंशिक तौर पर सफल नहीं होती है और कथित सफलता के बीच योजनाओं की असफलता की लंबी दास्तान है। इसलिए समाज , सरकार और परिवार को ईमानदारी से चिंतन करना चाहिए कि हम महामारी के दौर में कहाँ खड़े हैं ? इससे आगे का भविष्य कैसा होगा ? चूंकि आत्महत्या करने की खबरें आम हो चली हैं , वह पत्रकार हो या किसान लगभग सभी संवेदनशील लोग इस दुनिया से आत्महत्या करके जा रहे हैं। जिसका बड़ा कारण अवसाद है और भारत की युवा आबादी अवसाद कक शिकार है। कारण भले कितने हों , विकेन्द्रित हों परंतु सभी कारण समाज , सरकार और परिवार के केन्द्र में केन्द्रित हैं। सुधरने - सुधारने का वक्त अभी भी है पर पहल जब मजबूत हो !
"दुनिया के लोग
तनिक संवेदनशील हो जाओ
तुम्हारे अपने मरे जा रहे हैं। "
लेखक: सौरभ द्विवेदी, समाचार विश्लेषक