विष्णु प्रभाकर की जयंती पर
हममें से प्रत्येक को अपने हिस्से की पीड़ा, कष्ट और दुःख स्वयं ही भोगने पड़ते हैं। इस संसार का हरेक व्यक्ति किसी न किसी..
डॉ. अश्विनीकुमार शुक्ल (Dr. Ashwinikumar Shukla)
हममें से प्रत्येक को अपने हिस्से की पीड़ा, कष्ट और दुःख स्वयं ही भोगने पड़ते हैं। इस संसार का हरेक व्यक्ति किसी न किसी दुःख और विकार से पीड़ित है। परंतु, प्रकृति या परम शक्ति (आप अपनी आस्था और विश्वास के अनुरूप इसे अपना मनचाहा नाम दे सकते हैं) सबको अपने दुःख या विकार से छुटकारा पाने का कम से कम एक मौका अवश्य देती है। किसी बहाने से ही सही, अधिकांश लोगों को एकांतवास का मौका मिला है। दूसरे शब्दों में शांति और चुप्पी के बीच मौन रहकर चिंतन-मनन-आत्मप्रक्षालन करने का एक अवसर मिला है।
ऐसे में साहित्य से साक्षात्कार एक वरदान बन सकता है। मौन और शांति पर बहुत लिखा गया है। अनेक कविताएँ भी लिखी गई हैं। चाहे निराला की 'राम की शक्ति-पूजा' पढ़िए या अज्ञेय की 'असाध्य वीणा'; भवानीप्रसाद मिश्र की 'सन्नाटा' कविता पढ़िए या सुमित्रानंदन पंत की 'मौन-निमंत्रण' या हिंदी की अन्य अनेक एकांतप्रियता की रचनाएँ या फिर विश्व की अनेकानेक भाषाओं की इसी प्रकार की रचनाएँ पढ़िए, यथा–अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि जॉन कीट्स की 'ओड टु ए नाइटिंगेल' की अंतिम पंक्तियाँ (Past the near meadows, over the still stream, / Up the hill-side; and now 'tis buried deep / In the next valley-glades: / Was it a vision, or a waking dream? / Fled is that music:—Do I wake or sleep?) या फिर एलेक्जेंडर पोप की 'ओड टु सॉलिट्यूड' की (Sound sleep by night; study and ease, / Together mixed; sweet recreation; / And innocence, which most does please, / With meditation.)
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पंक्तियाँ पढ़िए, सभी में शांति और चुप्पी बोलती है। मौन के सशक्त रचनाकारों की बात करें, तो अज्ञेय को मौन की अभिव्यक्ति का सबसे समर्थ रचनाकार माना जाता है, किंतु विष्णु प्रभाकर भी कम नहीं हैं। विष्णु प्रभाकर प्रमुखतः कथाकार और जीवनीकार थे, जिन्होंने सौ के लगभग कविताएँ भी लिखीं थीं। 'आवारा मसीहा' उनका जीवनीपरक उपन्यास है, जो शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन की सजीव झाँकी प्रस्तुत करता है। इसमें मौन और एकांत शरच्चंद्र के चरित्र को मूर्त करने के प्रमुख अवयव हैं। हिंदी से एम.ए. करते हुए मुझे इस उपन्यास का अध्ययन करने का सुयोग प्राप्त हुआ था। उनका यही मौन कविता में भी फलीभूत हुआ है।
'मौन भी मुखर है' उनकी अनूठी कविता है– "कितनी सुंदर थी / वह नन्हीं-सी चिड़िया / कितनी मादकता थी / कंठ में उसके / जो लाँघ कर सीमाएँ / सारी / कर देती थी आप्लावित / विस्तार को विराट के / कहते हैं / वह मौन हो गई है– / पर उसका संगीत तो / और भी कर रहा है गुंजरित– / तन-मन को / दिगदिगंत को / इसीलिए कहा है / महाजनों ने कि / मौन ही मुखर है, / कि वामन ही विराट है।" अन्य कम प्रसिद्ध रचनाकारों ने भी मौन पर अच्छा लिखा है। उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में जन्मे विष्णु प्रभाकर (21/06/1912–11/04/2009) एक समर्थ साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने अपनी आजीविका सरकारी नौकरी से आरंभ की थी, किंतु कालांतर में नौकरी छोड़कर साहित्यधर्मिता में रच-बस गए थे।
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सन् 1931 ई. में उनकी पहली कहानी 'दिवाली की रात' प्रकाशित हुई थी। 'अर्धनारीश्वर', 'ढलती रात' और 'मेरा वतन' उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उनके जीवनीपरक उपन्यास 'आवारा मसीहा' ने उन्हें सबसे अधिक प्रसिद्धि दिलाई है। सन् 2004 ई. में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। तो आइए, ऐसे समर्थ रचनाकार विष्णु प्रभाकर जी के काव्य-संग्रह 'चलता चला जाऊँगा' की कुछ पंक्तियों के साथ उनका पुण्य स्मरण करते हुए उन्हें सादर नमन करते हैं–
- चलता चला जाऊँगा / विष्णु प्रभाकर
मैं बीते युग का भटका राही
नहीं जानता मेरी मंजिल कहाँ है
मैं चलता चला आ रहा हूँ
चलता चला जाऊँगा
भोर से साँझ तक
साँझ से भोर तक,
जीवन से मृत्यु तक
मृत्यु से जीवन तक
चिर एकाकी, चिर बैरागी
गाता हुआ यह गीत गुरुदेव का
"जोदी तोर डाक शुने केऊ ना आसे
तबे एकला चलो रे,
एकला चलो रे......।"
–विष्णु प्रभाकर
('चलता चला जाऊँगा', पृ. 147)
©डॉ. अश्विनीकुमार शुक्ल
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