रानी लक्ष्मीबाई : झांसी की वह तलवार जिस का चेहरा अंग्रेज भी कभी भूल नहीं पाये
भारत की धरती को गौरवान्वित करने वाली,1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 22 वर्षीय वीरागंना लक्ष्मीबाई ने रणक्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत को नाकों चने...
भारत की धरती को गौरवान्वित करने वाली,1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 22 वर्षीय वीरागंना लक्ष्मीबाई ने रणक्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया और जीते जी अंग्रेजों को अपनी झांसी पर कब्जा नहीं होने दिया।
मराठा शासित झांसी राज्य की महारानी लक्ष्मीबाई जिनका व्यक्तित्व वीरोचित गुणों से भरपूर देशभक्ति और बलिदान की अनुपम गाथा है,अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध में प्राणों की आहुति देने में उनका नाम शिखर पर है।1857 के महासमर में उनका नाम शिखर पर है।1857 के महासमर में उन्होंने अकूत साहस का लोहा मनवाया और ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध रणभूमि में अपनी सशक्त और स्तुत्य मौजूदगी दर्ज करवायी।
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मणिकर्णिका, परन्तु प्यार से मनु कही जाने वाली रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 को हुआ था।माता भागीरथीबाई और पिता मोरोपंत तांबे थे।मोरोपंत मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे।भागीरथीबाई बुद्धिमान,धार्मिक और सुसंस्कृत महिला थीं।मनु जब चार वर्ष की थीं कि उनके ऊपर से माँ का साया उठ गया।तब वे अपने पिता के साथ बिठूर आ गयीं।यहीं पर उन्होंने शास्त्रों और शस्त्रों की शिक्षा ग्रहण की,चूँकि घर में मनु के अकेलेपन के कारण पिता उन्हें बाजीराव के दरबार ले जाते थे जहाँ मनु की चंचलता ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया तो सब उन्हें प्यार से छबीली कहने लगे।07 वर्ष में नन्हीं मनु घुड़सवारी और तलवार में प्रवीण हो गई और पिता द्वारा सुनी पौराणिक वीरगाथाओं से गहरी प्रेरणा ली।
1842 में उनका विवाह झांसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झांसी की रानी लक्ष्मी बनीं।1851 में रानी ने एक पुत्र कीे जन्म दिया जो 4 महिने ही जीवित रह सका ।1853 में गंगाधर राव के अस्वस्थ होने पर उनको दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गई दत्तक पुत्र को लेने के बाद 21 नवम्बर को उनकी मृत्यु हो गई।बालक का नाम दामोदर राव रखा गया।ब्रिटिश हुकूमत ने दत्तक पुत्र के विरूद्ध मुकदमा दायर कर उसे खारिज कर दिया।उस वक्त अधिकतम भू भाग पर अंग्रेजों का शासन था,वे झांसी को अपने अधीन करना चाहते थे ,उन्हें यह उपयुक्त अवसर लगा कि एक नारी हमारा प्रतिरोध नहीं कर सकेगी।अस्तु दत्तक पुत्र को राज्य का अधिकारी नहीं मानते हुये रानी को पत्र लिखाचूँकि राजा का कोई वारिस नहीें इसीलिए झांसी पर अंग्रेजों का अधिकार होगा!
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रानी क्रेाध से भर गईं और घोषणा कर दींमैं अपनी झांसी नहीं दूँगी! अंग्रेज तिलमिला उठे, परिणाम स्वरूप उन्होंने झांसी पर आक्रमण कर दिया।रानी ने भी अदम्य साहस के साथ युद्ध की तैयारी की।किले की प्राचीर पर तोपे रखवाईं और मजबूत किलेबंदी की कि अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज भी चकित रह गया।अंग्रेजों ने किले को चारों ओर से घेरते हुए ताबड़तोड़ आक्रमण किया ,आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाया लेकिन किला न जीत सके।रानी और उनकी प्रजा ने अंतिम सांस तक किले की रक्षा करने की प्रतिज्ञा जो की थी।
ह्युरोज को महसूस हुआ कि सैन्यबल से किला जीतना संभव नहीं ,अतः उसने कूटनीति का प्रयोग करते हुए एक विश्वासघाती की तलाश शुरू की।एक कृतघ्न सरदार दूल्हा सिंह को उसने मिला लिया। जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया।यहीें इतिहास का दूसरा द्वार खुल गया।
याद आ रही हैं किसी शायर की पंक्तियाँ कि:
इतिहास में कुछ हादसे ऐसे भी हुए हैं
लम्हें ने खता की,सदियों ने सजा पाई !
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फिर क्या था ,फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित हो गया।घोड़े पर सवार ,हाथ में तलवार लिए बेटे को पीठ पर बाँधे हुए रानी ने रणचंडी का रूप धारण किया और शत्रुओं का संहार करने लगीं।झांसी के जाँबाज सैनिक टूट पड़े।जय भवानी‐‐‐‐हर हर महादेव के उदघोष से रणभूमि गूँज उठी किन्तु रानी की सेना अंग्रेजों के मुकाबले छोटी थी।रानी अंग्रेजों से घिर गई तो कुछ विश्वासपात्रों की सलाह से वे किला छोड़ कालपी की ओर बढ़ी और वही से युद्ध जारी रखा।
जब कालपी छिन गई तो रानी तात्या टोपे से मिलीं और सहयोग से शिन्दे की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोल दिया जो अपनी फौज के साथ कंपनी का वफादार बना हुआ था।रानी के हमला करने पर वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए आगरा भगा और अंग्रेजों की शरण ली।रानी का शौर्य देखकर शिन्दे की फौज विद्रोहियों से मिल गई।रानी और उनके सहयोगियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया तथा महाराष्ट्र की ओर धावा मारने का मंसूबा बाँधा ताकि मराठों में भी विदªोह की आग फैल जाए।
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इस संकटपूर्ण स्थिति में ह्यूरोज और उसकी फौज ने रानी को असफल करने की पूरी कोशिश की।उसने ग्वालियर फिर से ले लिया और मुरार तथा कोटा की दो लड़ाईयों में रानी की सेना को फिर से परास्त किया।ब्रिटिश अधिकारियों ने झांसी राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज को रानी के सलाना कर्ज में से काटने का फरमान जारी कर दिया।ऐसी असहनीय परिस्थितियों में भी रानी ने हौसला रखा।
झांसी 1857 के महासंग्राम का प्रमुख केन्द्र बन गया।रानी ने स्वयं सेवक सेना का गठन किया।इसमें महिलाओं को भर्ती कर युद्ध का प्रशिक्षण दिया।जनता ने भी संग्राम में सहयोग दिया।
1857 के सितम्बर अक्टूबर में पड़ोसी ओरछा और दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया ।रानी ने सफलतापूर्वक उन्हें विफल कर दिया।1858 की शुरूआत में ब्रिटिश सेना ने पुनः झांसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च तक किले की घेराबंदी कर ली।दो हफ्तों की लड़ाई के बाद ब्रिटिश सेना ने कब्जा कर लिया।ये दिन रानी और झांसी के लिए निहायत संघर्ष भरे दिन थे।
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18जून 1958 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़तेलड़ते तलवार चलाने वाली रानी के पैरों में गोली लगी‐‐‐‐‐उनकी गति धीमी हुई‐‐‐‐‐‐वे गंभीर रूप से जख्मी हुईं और‐‐‐‐कोटा की सराय मोर्चे पर उन्होंने अंतिम सांस ली‐‐‐‐‐‐देश के तमाम वीरों के भीतर आग जलाकर एक स्फुलिंग बुझ गया ।तमाम देशभक्तों में अनंत साहस का संदेश देते हुए एक वीरागंना की काया शंत हो गई‐‐‐‐‐‐!
चिर निद्रा में सोई उस नारी के समीप पहुँचने की किसी अंग्रेज सैनिक की हिम्मत नहीे हुई।उनके शौर्यपूर्ण आत्मबलिदान पर अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने कहा देखो वीरांगना सो रही है।