बुन्देलखण्ड के लिए संजीवनी बन सकता है पलाश
पलाश गरीबों की एक ऐसी पूंजी है, जिससे बुन्देलखण्ड के हजारों गरीब लोगों का गुजर-बसर चलता है...
सैकड़ों वर्ष से बुन्देलखण्डवासी पलाश के पत्तों से बने दोना-पत्तल में खाना खाते आ रहे हैं। आज के दौर में जरूर इनकी जगह प्लास्टिक की कटोरी और प्लेटों ने ले ली है पर पलाश के पत्तों से बने दोना-पत्तल में खाना खाने का एक अलग ही आनन्द होता था, जो आज नहीं मिलता।
बुन्देलखण्ड में यह बहुतायत में पाया जाता है। चाहे चित्रकूट का पठारी इलाका हो या मध्यप्रदेश का मैदानी इलाका। बुन्देलखण्ड की इस बेल्ट में पलाश के पेड़ खूब मिलते हैं। प्रचंड गर्मी में जब ज्यादातर पेड़ हरियाली से सूने हो जाते है उस समय यह अपनी हरियाली से सूखे की वीरानगी को मिटाने का काम करता है। पलाश के केसरिया रंग के फूल गर्मी के सूखे में बड़े ही आकर्षक लगते हैं।
पलाश विभिन्न बीमारियों को जड़ से खत्म करने वाली अचूक दवा भी है। बुन्देलखण्ड में इसे छियूल, ढाक, टेसू आदि नामों से पुकारा जाता है। इसके पेड़ की छाल की रस्सी बाजार में खूब बिकती थी। गर्मी के दिनों में लोग चैपालों में बातचीत करते-करते रस्सी बना लेते थे, लेकिन बदलते समय के साथ पलाश उत्पादों से चलने वाला कुटीर उद्योग भी खत्म होता जा रहा है।
आज भी बुन्देलखण्ड के कई गांव हैं जहां के लोगों का जीवन-यापन ही पलाश के बने उत्पादों से चलता है। एक दौर था जब पलाश की सूक्ष्म और लद्यु कुटीर उद्योग में अहम हिस्सेदारी रही जो सुविधावादी इस युग में विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गयी है। हालांकि ग्रामीण इलाकों में पलाश आज भी पर्याप्त रूप से मिलता है। किसान और समाजसेवी उमाशंकर पाण्डेय बताते हैं कि यह खेत खलिहानों में स्वतः तैयार होने वाला पौधा है जो धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले लेता है।
डिस्पोजेबल दोना-पत्तल, गिलास के आने के बाद इन्हें कोई नहीं पूछता, जबकि छियूल हमारे पर्यावरण के लिए बहुत ही अच्छा है। इसके पत्ते से बनने वाली सामग्री पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती। मिट्टी में सूखे पत्तल व दोना नष्ट होकर खाद बन जाते हैं जबकि डिस्पोजेबल सामग्री से पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचती है। यदि डिस्पोजेबल सामग्री पर रोक लगेगी तो यह परम्परागत रोजगार बचा रहेगा और पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।
पलाश का फूल उत्तर प्रदेश सरकार का राज्य पुष्प भी है। सरकार ने 8 दिसम्बर 2010 को पलाश को राज्य पुष्प घोषित किया था। वहीं केन्द्र सरकार के डाक विभाग ने पलाश के फूल पर 35 पैसे का डाक टिकट जारी किया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पेड़ कितना महत्वपूर्ण है। देश ही नहीं विदेशों में भी पलाश को अहम स्थान मिला है। 1978 में थाईलैण्ड व 2004 में बांग्लादेश सहित कई देशों ने पलाश के पेड़ व फूल को सम्मान दिया है।
दाम्पत्य जीवन की शुरूआत इस पेड़ की लकड़ी से बने मण्डप को साक्षी मानकर की जाती है। वर और वधू इस पेड़ की लकड़ी से बनी चैकी में बैठकर वैवाहिक कार्यक्रम पूरा करते हैं। हलछठ और हरतालिका व्रत के दिन इसकी डाल, शाखा और पत्तों की पूजा महिलायें करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इसके पेड़ में ब्रम्हा, विष्णु और महेश तीनो का वास रहता है। इसकी पूजा से सूर्य, चन्द्रमा देव प्रसन्न होते है।
पलाश की खासियत यही तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानव स्वास्थ्य व रोजगार का भी आधार है। इसकी जड़ से रस्सी बनती है। पहले रहट खींचने के लिए इस रस्सी का इस्तेमाल किया जाता था। इसी तरह इसकी लकड़ी हाथों में बांधने से हैजा जैसी बीमारी लोगों को नहीं होती थी। इसमें जो फूल निकलते हैं उसके फूलों से रंग बनता है। कहते हैं साल में एक बार आंखों में रंग डालने से रोशनी बढ़ती है इसीलिए छियुल के फूलों का रंग में इस्तेमाल होता था। आज भी गांव में इसके फूलों को लोग रात में पानी में भिगो देते हैं और सवेरे उसी पानी को पीते हैं। कहते हैं इससे शरीर की बीमारियां दूर होती है।
बुजुर्ग बताते हैं कि हमारे शरीर में रंगों की कमी के कारण कई बीमारियां जन्म लेती हैं, जिनकी पूर्ति के लिए पलाश के फूल से जो रंग बनाया जाता था, उसी रंग से होली खेलने की परम्परा प्राचीन समय में रही है। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में अब पलाश के फूल बेरंग हो चले हैं। रासायनिक और नुकसानदायक रंग होली की पहचान बन चुके हैं। हालांकि इन्हीं नुकसान के चलते अब लोग होली में रंग खेलने से भी हिचकने लगे हैं। यदि फिर से पलाश के रंगों का दौर आ जाये तो होली भी रंगीन हो जायेगी।
वर्तमान समय जब कोरोना जैसी महामारी फैल रही है ऐसे में पलाश के पत्तों की पूरे विश्व में मांग बढ़ रही है, क्योंकि इस पत्ते में तमाम बीमारियों को खत्म करने के गुण मौजूद हैं। कुल मिलाकर पलाश बुन्देलखण्ड के लिए एक संजीवनी है। जो यहां के लोगों का स्वास्थ्य व रोजगार दोनों की व्यवस्था कर सकता ह