जातियों के भंवर में भटकता मतदाता
आज सभी पार्टियां लोकलुभावन घोषणाओं से आपका दिल जीतना चाह रही हैं। कभी सोचा है कि इस मुफ्तखोरी की बंदरबांट से आपका कितना भला हो पाया है ?
लेखनी -प्रशान्त त्रिपाठी (अधिवक्ता दिल्ली)राष्ट्रीय-उप सचिव मानवाधिकार
आज सभी पार्टियां लोकलुभावन घोषणाओं से आपका दिल जीतना चाह रही हैं। कभी सोचा है कि इस मुफ्तखोरी की बंदरबांट से आपका कितना भला हो पाया है?सरकार बनते ही इन सबका पाई-पाई आपसे ही वसूला जाता है।प्रदेश कर्ज में चला जाता है।विकास बाधित होता है।शिक्षा,स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे की जिस तरक्की से पूरे प्रदेश का कल्याण संभव होता है,उसकी संभावना क्षीण होती है।आज पूरे देश मे पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड,पंजाब,मणिपुर और गोवा) में होने जा रहे विधानसभा चुनावों का शंखनाद बृगुल बज चुका है। देश की कुल 4121 विधानसभा सीटों में से 690 यानी करीब 17 फीसद प्रत्याशी इस प्रक्रिया में चुने जाएंगे।देश के करीब चौथाई मतदाता इसमें अपने वोट का इस्तेमाल करेंगे । राजनीतिक अहमियत के अलावा इन विधानसभा चुनावों की देश की एकता,अखंडता और विकास में भी अहम भूमिका है ।उत्तर प्रदेश, पंजाब,उत्तराखंड,मणिपुर सीमाई प्रदेश हैं।गोवा के भू-राजनीतिक महत्व का अपना इतिहास है।उत्तर प्रदेश,पंजाब अन्न के कटोरे हैं जो देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के साथ केंद्र की नीतियों से तारतम्य बनाते हुए राष्ट्र के विकास मेंब गुणात्मक उछाल ला सकते हैं । इसलिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पांच प्रदेशों में होने जा रहे चुनावों में हर एक वोट बहुत सोझ-समझकर डाला जाना चाहिए।आप मतदाता हैं । लोकतंत्र के भाग्यविधाता हैं।अगर आज तमाम राजनीतिक दल मतदाता चालीसा पढ़कर आपको रिझाने का काम कर रहे हैं तो वह आपकी श्रेष्ठता को ही साबित करता है।आप रीझिए न।अपना विवेक इस्तेमाल करें। तुलना करें कि आपका जीवन स्तर कितना,कब और कैसे बेहतर हुआ।बताते चलें जिस राज्य की प्रभुसत्ता लोक में निहित होती है उसे लोकतांत्रिक राज्य की संज्ञा दी जाती है । भारत में लोकतंत्र के सूत्र वेदों से मिलते है ।
पौराणिक आख्यान के अनुसार,स्वयंभू मनु से मानव की उत्पत्ति हुई और लोक का प्रारंभ हुआ।मनु ही नियामक बने।प्राचीन काल में गण शब्द जनतंत्रात्मक राज्य का प्रतीक था जिसे संघ भी कहा जाता था।इन गणराज्यों का संविधान ज्ञात नहीं है पर यह तय है कि शासन किसी एक व्यक्ति के हाथ में और परम्परागत नहीं था।इसके साथ ही ये समूह विशेष के शासन के प्रतीक थे। बौद्धकाल में गणतंत्रों का अधिक प्रभाव था।स्वयं बुद्ध गणराज्य के थे इसीलिए बुद्ध ने अपनी धार्मिक व्यवस्था को गणतंत्रात्मक रखा और ' संघ शरणं गच्छामि'का उद्घोष किया । इस प्रकार भारत में लोकतंत्र का इतिहास आदिकाल से मिलता है । राजतंत्रों के पराभव,विदेशी दासता और जनजागरण ने स्वतंत्रता के पश्चात पुनरूः लोकतांत्रिक गणराज्य की परिकल्पना की और शासन सत्ता में सामन्जस्य रखता है । किसी राष्ट्र की प्रभुसत्ता का प्रमाण संविधान ही है । प्रभुसत्ता के दो भेद होते हैं । पहली प्रभुसत्ता को कानूनी सत्ता कहते हैं और दूसरी को राजनीतिक सत्ता राजनीतिक प्रभुसत्ता ही जनशक्ति है । लोकतंत्र में अंतिम प्रभुसत्ता जनता के हाथों में होती है।लोकतंत्र और प्रजातंत्र में भी अंतर होता है।प्रजातंत्र में राजसत्ता रहती है लेकिन लोकतंत्र में नहीं रहती है ।इंग्लैण्ड में प्रजातंत्र है पर लोकतंत्र नहीं ।
लोकतंत्र की आस्था मानवीय स्वतंत्रता है ।व्यक्ति या दल अपनी विचारधारा को जनता के समक्ष रखते हैं और मनुष्य को उसके समर्थन या विरोध का पूर्ण अधिकार है । इसमें ऊंच,नीच ,जाति, पाति,धनी निर्धन का भेद नहीं होता है।मनुष्य केवल मनुष्य है,मानव मन की अभिव्यक्ति के अनुकूल जो संगठन बने उन्हें राजनीतिक दल कहा जाता है।लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का अनिवार्य महत्व है।प्रश्न यह है कि संविधान की मूल भावना और लोकतंत्र की मानवीय स्वतंत्रता की अवधारणा को आज के राजनीतिक वातावरण में क्या प्रतिष्ठा मिली है खासकर उत्तर प्रदेश में दिन में चार बार दल बदलने वाले,जातीय रैलियों के माध्यम से जाति,धर्म और संप्रदाय के आधार पर वोट मांगने वाले,बेमेल गठजोड़ से सरकार चलाने वाले दलबदलू ,अपराध में लिप्त राजनेता लोकतंत्र के मूल सिद्धांत की रक्षा किस प्रकार करेंगे।भाषावार प्रांतों के गठन ने क्षेत्रीय आंदोलनों को जन्म दिया और क्षेत्रीयता के बढ़ते दबाव से गठबंधन सरकारों का दौर आ गया । राष्ट्रीय अस्वीकार्यता के बावजूद देवगौड़ा और गुजराल जैसे व्यक्ति प्रधानमंत्री बन गए । क्षेत्रीयता की राजनीति का उभार 1967 में आया जब अनेक प्रांतों में संविद सरकारें बनीं आपातकाल के बाद क्षेत्रीय दलों में भी वर्चस्व की लड़ाई धर्म और संप्रदाय के नाम पर उभरी । एक राज्य में अनेक क्षेत्रीय दल ऐसे बने जिनका मुख्य आधार जाति ही थी । जाति केंद्रीत राजनीति ने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को विशेष रूप से प्रभावित किया जहां आज ये स्थिति हो गई है कि चुनावी तालमेल से लेकर उम्मीदवारों के चयन में जाति को महत्व दिया जाने लगा है और राष्ट्रीय दल भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं । जातीय चेतना के इस उभार ने शासन और प्रशासन को भी प्रभावित किया है जिससे ये राज्य विकास में पिछड़ते जा रहे हैं । दिल्ली की सरकार का दरवाजा लखनऊ से खुलता है, इस दृष्टि से उत्तर प्रदेश की जातीय राजनीति पूरे देश को प्रभावित कर रही है। स्थिति यह है कि आज राजनीतिक दल बहुमत के लिए नहीं बल्कि ऐसी संख्या हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिससे चुनाव परिणामों के बाद बहुमत न होने की स्थिति में मेल भाव कर सकें।यह गंभीर प्रश्न है कि जब सरकार की बुनियाद ही सौदेबाजी पर होगी तो देश,प्रदेश का भविष्य क्या होगा?उत्तर प्रदेश में सभी दल जातीय सम्मेलन में लगे हैं। सभी दलों की अपनी जातियां है।फिर अन्य जातियों के अपने नेता हैं।अपनी-अपनी जातियों को दल से जोड़ने का ठेका लेने वाले ठेकेदार और चेहरे टेंडर भरकर,अपनी जातियों के आंकड़े दिखाकर सीट का टेंडर पास करा रहे हैं ।हर दल के अपने ब्राह्मण , ठाकुर , पिछड़ी,दलित और मुस्लिमों के नेता हैं।भाजपाई ठाकुर,कांग्रेसी ब्राह्मण, सपाई यादव,बसपाई दलित यही कुल,गोत्र,शखाएं,सूत्र और प्रवर बन गए हैं ।आम आदमी जिसे कभी मतदाता कहा जाता है ,जो जनता सरकार चुनती है,वह आज जातीय समीकरण में कहां खड़ी है यह विचारणीय है।वह आम आदमी जो पहले दल को जानता था,देश को जानता था,आज केवल अपनी जाति को पहचानता है।जातियों के जंगल में आम आदमी भटक गया है । लोकतंत्र का स्वरूप बिगड़कर जाति तंत्र में बदल गया है।चुनाव का टिकट पाने के लिए जातिगत आंकड़ें लेकर हाईकमान के पास जाते हैं।हाईकमान के फैसले जातीय जनसंख्या के आधार पर होते हैं।राजनीतिक दल तो जातियों के गुलाम ही हो चुके हैं । मीडिया आग में घी डालने का काम करता है।इधर उम्मीदवारी घोषित हुई और उधर जाति की गणना करके मीडिया निर्णय सुना देता है।चुनावी सर्वेक्षण अर्थात सजातीय मतदाताओं की संख्या व्यक्ति की स्वतंत्रता,अस्मिता ,ईष्यात और इयत्ता का कोई भी अर्थ नहीं रह गया है । आदिम युग में कबीले होते थे । हर कबीले का अपना मुखिया,अपना रीति रिवाज ये कबीले आपस में टकराते थे
अंग्रेजी शासनकाल में ' बांटो और राज्य करो ' की नीति ने हिंदू - मुस्लिम एकता को भंग कर दिया।देश का विभाजन हो गया । स्वतंत्रता के बाद जातियों को समाप्त करने के प्रयास हुए आरक्षण ने वर्ग बनाए,कागजों पर जाति प्रथा हटी । हम नागरिक रह गए।भारत संघ की नागरिकता समानता के आधार पर दी गई थी।आम आदमी को विश्वास हुआ कि राजनीतिक दलों की विचारधारा के आधार पर सरकारें बनेंगी।
प्रारंभ में ही भाषावार प्रांतों का गठन हो गया और हम अचानक भारतीय से बंगाली,मराठी,गुजराती,तमिल,पंजाबी हो गए।लम्बे समय तक ये खेल चला।राजनेताओं की शतरंजी बिसात नापाक इरादों पर बिछती है ।जब तक राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व रहा तब तक हमें क्षेत्रों में बांटा गया,उत्तर और दक्षिण में बांटा गया । हम व्यक्ति नहीं क्षेत्र थे।क्षेत्रीय भावना ने क्षेत्रीय दलों को जन्म दिया।कांग्रेस के हाथ से यह मुद्दा छिन गया क्षेत्रीयता अर्थात क्षेत्रीय नेता।एक साथ कई क्षेत्रीय दल बनने लगे ।अपनी इस लड़ाई में क्षेत्रीय दलों ने जातीय आधार ले लिया । बहुजातीय संकीर्णता और अशिक्षा से घिरे उत्तर प्रदेश में नेताओं ने जातिवाद को सत्ता तक पहुंचने का माध्यम बना लिया । धर्म,वर्ग, संप्रदाय,भाषा सब पीछे छूट गए।अब हम व्यक्ति नहीं,क्षेत्र नहीं ,राष्ट्र नहीं केवल जाति हैं ।जातीय चेतना जगाई जा रही है । गुण-दोष नहीं देखो,प्रत्याशी की जाति देखो।अब दल किसी विचारधारा को नेतृत्व नहीं करते हैं ,किसी जाति को संभालने के लिए उस जाति का एक नेता हर दल में उपलब्ध है ।चुनाव आता है और मतदाता सम्मेलन नहीं होते , नागरिक सभाएं ,नागरिक अभिनंदन नहीं होते ।ब्राह्मण सम्मेलन,क्षत्रिय सम्मेलन , भूमिहार सम्मेलन , वैश्य सम्मेलन , प्रजापति सम्मेलन , लोध सम्मेलन , कुशवाहा सम्मेलन,पासी सम्मेलन,यादव सम्मेलन,मौर्य सम्मेलन इत्यादि । जितनी जातियां उतने सम्मेलन हमें वोट दो-हम आपकी जाति के हैं ।अब जाति न समाप्त करो,अपनी जातीय चेतना को जगाओ ! जातियों का उत्थान करो , सजातियों को चुनो। संसद और विधानसभा में पहुंचते ही नेताजी जाति को भूल जाते हैं ।मतदाता ठगा सा महसूस अनुभव करता है ।किस संविधान में लिखा है कि हम भारत की जातियां अपने गणतंत्र की रक्षा करेंगे ।आम आदमी वोट देने के बाद सोचता है कि हमें तो मिली-जुली संस्कृति में,समाज में रहना है ।वह कौन था जो हमारे हृदय में जहर घोलकर चला गया ।पूरे गांव को , शहर को ही नहीं ,दिल को भी टुकड़ों में बांट गया ।गांव अब छोटा सा गांव नहीं रह गया ,उस गांव के लोग कबीलों में बंट गए ।जाति बना मतदाता टुकुर - टुकुर ताकता है । किसे पता था कि भारत संघ एक सच्चे लोकतंत्र की जगह जातितंत्र की ओर बढ़ जाएगा।
प्रलोभन और विकास के लिए जरूरी कदम के बीच बारीक लकीर है । राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता को भी इस फर्क को समझना होगा।साथ ही यह भी सोचना होगा कि वादे पूरे करने के लिए राज्य सरकार के पास माध्यम क्या होगा। इस समय ज्यादातर राज्यों पर कर्ज है।यह कहीं न कहीं राज्यों के विकास में बाधक होगा ।एक विमर्श इस बात पर भी होता है कि किसानों का कर्ज माफ करने या उन्हें कर्ज चुकाने में सक्षम बनाने में से कौन सी नीति को उचित माना जाए ? चुनावों के आसपास ऐसे कई सवाल सतह पर आ जाते हैं । राजनीतिक दलों को जिम्मेदार बनने की जरूरत है ।केवल मुफ्त के उपहारों का लालच देकर चुनाव जीतने का प्रयास उचित नहीं है । बेहतर तरीका होगा कि पार्टियां चुनावी वादे करते समय इस बात का खाका भी पेश करें कि उन वादों को पूरा करने के लिए उनके पास रणनीति क्या है ? इससे हम बेहतर प्रशासन और समाज की ओर बढ़ सकेंगे ।हम मानव विकास के उन पैमानों पर आगे बढ़ेंगे ,जिनसे सभी का जीवन समृद्ध एवं सुखी हो सकेगा ।जनता को भी चुनाव के समय राजनीतिक दलों के वादों की व्यवहार्यता पर विचार करना चाहिए । सतर्क मतदाता ही श्रेष्ठ लोकतंत्र का वाहक बन सकता है ।