बांदा में इस पार्टी का गढ़ ध्वस्त, अब इनके प्रत्याशियों को जमानत बचाने को नहीं होते वोट नसीब
आजादी के बाद हुए विधानसभा चुनाव में जनपद बांदा में तीन दशक तक कम्युनिस्ट का पार्टी का लाल परचम लहराता रहा..
आजादी के बाद हुए विधानसभा चुनाव में जनपद बांदा में तीन दशक तक कम्युनिस्ट का पार्टी का लाल परचम लहराता रहा। संसद से लेकर विधानसभा तक अधिकांश सीटों पर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी जीत दर्ज करते रहे, लेकिन 90 के दशक में बहुजन समाज पार्टी का उदय होने से कम्युनिस्ट का यह गढ़ ध्वस्त हो गया। जो कम्युनिस्ट में बड़े नेता थे उन्होंने भी बसपा का दामन थाम लिया। वर्तमान में इस पार्टी की इतनी दयनीय स्थिति है कि अब इनके प्रत्याशियों को जमानत बचाने भर को वोट नसीब नहीं होते हैं।
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बुंदेलखंड के जनपद बांदा में दुर्जन भाई ऐसे धुरंधर नेता थे जिनकी कड़ी मेहनत के कारण कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा कायम हो गया था। इस पार्टी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले दुर्जन भाई को एक बार बबेरू विधानसभा से विधायक बनने का भी अवसर प्राप्त हुआ था। इसके बाद इनकी मेहनत का ही नतीजा था कि कम्युनिस्ट पार्टी का सिक्का जम गया।
इस क्षेत्र में कम्युनिस्टों का जलवा इस कदर था कि 1967 में राजनीति में एकदम अनजान चेहरा जागेश्वर यादव को लोकसभा चुनाव लड़वाया गया। उन्होंने पहली बार में ही जीत दर्ज कर लाल परचम लहराया था, जबकि इसी पार्टी के देव कुमार यादव 1971 में मात्र 7000 वोटों से जीत से वंचित रह गए थे। वह बताते हैं कि लोकसभा की तरह ही कम्युनिस्ट पार्टी का विधानसभा चुनाव में भी दबदबा कायम रहा है।
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- बबेरू और नरैनी सीटें इस पार्टी की गढ़ बनी थी
जिले की बबेरू और नरैनी विधानसभा सीटें इस पार्टी की गढ़ बन गई थी। अविभाजित बांदा की कर्वी सीट भी कम्युनिस्टों का गढ़ बनी रही। 1967 ,1969, 1977 और 1985 के विधानसभा चुनाव में कर्वी से राम सजीवन ने भारी मतों से जीत दर्ज की थी और राम सजीवन ने ही 1989 में लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज कर 27 फ़ीसदी वोट हासिल करके सांसद बनने में सफल हुए थे। इसी वर्ष कर्वी विधानसभा सीट के चुनाव में कम्युनिस्ट के राम प्रसाद विधायक का चुनाव जीते थे।
इसी तरह नरैनी विधानसभा सीट से 1972 में कम्युनिस्ट पार्टी के चंद्रभान आजाद विधायक बने थे। 1977, 1985 और 1989 में डॉ सुरेंद्र पाल वर्मा ने नरैनी सीट से अपनी जीत दर्ज की थी। तब से यह सीट कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ बन गई थी। ठीक इसी तरह से बबेरू विधानसभा सीट भी कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ बन गई थी। यहां देव कुमार यादव कम्युनिस्ट के बलबूते पर ही 4 बार विधायक बनने में सफल हुए लेकिन नब्बे के दशक में बहुजन पार्टी बहुजन समाज पार्टी के आने से कम्युनिस्ट का किला धीरे-धीरे ध्वस्त होने लगा। कम्युनिस्ट पार्टी का वोट बैंक अनुसूचित जाति के मतदाता बसपा की झोली में चले गए।
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- वरिष्ठ नेताओं का भी कम्युनिस्ट से हुआ मोहभंग
बसपा का उदय होने से अनुसूचित जाति के मतदाताओं का रुझान बसपा की ओर होने से कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने बसपा का दामन थाम लिया। इनमें चन्द्रभान आजाद, डॉ सुरेंद्र पाल वर्मा और राम सजीवन मुख्य रूप से शामिल है। जबकि बाबू देव कुमार यादव जीवन पर्यंत कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बने रहे। इस पार्टी के पुरोधा दुर्जन भाई के निधन के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी।
पिछले विधानसभा चुनाव की बात करें तो 2017 के विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशियों को 5000 वोट भी नसीब नहीं हुए। जिले की बबेरू विधानसभा सीट से पार्टी के प्रत्याशी हसीब अली को 2788 मत मिले और वह छठवें स्थान पर रहे। तिंदवारी विधानसभा सीट से श्याम बाबू चुनाव लड़े इन्हें 3304 मत मिले और यह पांचवें स्थान रहे है। इसी तरह नरैनी विधानसभा सीट से दयाराम चुनाव लड़े और वह पांचवें पायदान पर रहे, उन्हें 3344 मत मिले। जबकि बांदा विधानसभा सीट से श्याम सुंदर सिंह चुनाव लड़े इन्हें मात्र 1953 मत मिले और यह पांचवें स्थान पर रहे। इस तरह जिले की चारों विधानसभा सीटों में कम्युनिस्ट पार्टी का कोई प्रत्याशी जमानत बचाने में सफल नहीं रहा।
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