मौन चराने की अनूठी परंपरा
दीपावली पर्व पर दिवारी गायन-नृत्य और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखती ही बनती है। इस मौके पर मौन चराने वाले 'मौनिया' ही सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र होते हैं। मौन चराने वाला व्यक्ति एक दिन के लिए न खाना खाता है और न ही पैर में जूते पहनता है। मौनिया व्रत की शुरुआत सुबह गौ (बछिया) पूजन से होती है। इसके बाद वे गौ-माता व श्रीकृष्ण भगवान का जयकारा लगाकर मौन धारण कर लेते हैं फिर गोधूलि बेला में गायों को चराते हुए वापस नगर-गांव पहुंचते हैं। यहाँ विपरीत दिशा से आ रहे गांव, नगर के ही मौनियों के दूसरे समूहों से भेंट करते हैं और फिर सभी को लाई-दाना व गरी, बताशा-गट्टा का प्रसाद वितरित करते हैं। इसी प्रकार यह मौन व्रत लगातार 12 वर्ष तक किया जाता है और एक वर्ष का ब्याज में किया जाता है इस प्रकार कुल 13 वर्ष का व्रत किया जाता हैं।
पहले वर्ष पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं। इसके बाद आने वाले वर्षों में प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है। परम्परा के अनुसार मौन चराने वाले लोग दीपावली के दिन यमुना घाट में स्नान करते हैं। कुछ लोग यमुना-बेतवा के संगम स्थल में स्नान करने जाते हैं फिर विधि पूर्वक पूजन कर पूरे नगर में ढोल नगाड़ों की थाप पर दिवारी गाते, नृत्य करते हुए उछलते-घूमते वापस लौटते हैं। इस दिन मौनिया श्वेत धोती ही पहनते हैं और मोर पंख के साथ-साथ बांसुरी भी लिए रहते हैं। मौनिया बारह वर्षों तक मांस व शराब आदि का सेवन नहीं करते हैं। मौनियों का एक गुरु होता है जो इन्हें अनुशासन में रखता है।
इस तरह से किया जाने वाला यह व्रत नटवर नागर द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के संदेश को प्रसारित करता है कि जो व्यक्ति 13 वर्ष तक मन, वाणी और कर्म से मौन चरायेगा, वह सांसारिक माया-मोह के बन्धनांे से छुटकारा पाकर परम धाम को प्राप्त करेगा। इन्हीं अनूठी परम्पराओं के चलते बुन्देलखण्ड की दिवारी का पूरे देश में विशिष्ट स्थान व अनूठी पहचान है।