शजर पत्थर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली, भारत सरकार की ओर से डीएम पुरस्कृत

दो दिन पहले अयोध्या में निर्मित हो रहे राम मंदिर का हूबहू मॉडल बनाकर हस्तशिल्पी द्वारिका प्रसाद सोनी ने शजर पत्थर को सुर्खियों में ला दिया और...

Jan 3, 2024 - 08:37
Jan 3, 2024 - 08:49
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शजर पत्थर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली, भारत सरकार की ओर से डीएम पुरस्कृत

बांदा,

दो दिन पहले अयोध्या में निर्मित हो रहे राम मंदिर का हूबहू मॉडल बनाकर हस्तशिल्पी द्वारिका प्रसाद सोनी ने शजर पत्थर को सुर्खियों में ला दिया और अब केंद्र सरकार भी इस नायाब पत्थर की मुरीद हो गई है। भारत सरकार की ओर से आत्मनिर्भर भारत उत्सव व एक जनपद एक उत्पाद के राष्ट्रीय पुरस्कार के उद्घाटन समारोह में बांदा जिला प्रशासन को बांदा के शजर पत्थर को प्रोत्साहन देने के लिए पुरस्कृत किया गया है। डीएम बांदा दुर्गा शक्ति नागपाल ने यह पुरस्कार प्राप्त किया है।

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यह पुरस्कार भारत सरकार के विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल द्वारा नई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में दिया गया। इस बारे में डीएम दुर्गा शक्ति नागपाल का कहना है कि यह बांदा के कारीगरों के लिए बड़ा दिन है। बांदा के शजर पत्थर को राष्ट्रीय पहचान मिलने से यहां के कारीगरों में खुशी का माहौल देखने को मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के प्रोत्साहन से शजर पत्थर ओडीओपी में शामिल हुआ और जी टैगेट भी हो गया है। आज के पुरस्कार से शजर की माँग भी बढ़ेगी व बाँदा के कारीगरों की आर्थिक वृद्धि में भी गति आएगी।

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शज़र पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं। ये पत्थर आज भी अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर हैं। शज़र पत्थर केन नदी में पाया जाता है। जो बांदा जिले के पश्चिम में बुंदेलखंड क्षेत्र में बहती है। इसके खनन से लेकर इसे तराशने तक बहुत सी प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। शज़र पत्थर पर कुदरत खुद चित्रकारी करती हैं। आभूषण और सजावटी सामान बनाने में इस पत्थर का प्रयोग किया जाता है। इस पत्थर की कहानी दिलचस्प है। केन नदी में ये हमेशा से मौजूद था। लेकिन इसकी पहचान लगभग 400 साल पहले अरब से आए लोगों ने बांदा में की थी। वो इसको देख कर दंग रह गए। 

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फारसी भाषा में इसका मतलब है शाख, टहनी या छोटा सा पौधा। इसे आम बोलचाल की भाषा में हकीक ए- शजरी भी कहते हैं। इन पत्थरों में फूल पत्तियां और दृष्यावलियां प्राकृतिक रूप सी बनी हुई मिलती हैं। शायद इसीलिए इसे शज़र का नाम दिया गया है। मुगलों के राज में शज़र की डिमांड बढ़ गई थी। उस समय एक से एक कारीगर हुए, जिन्होंने इससे बेजोड़ कलाकृतियां बनाईं। धीरे-धीरे बांदा शज़र पत्थर का केंद्र बन गया। कई कारखाने खुल गए और तमाम लोगों को इससे रोज़गार मिला। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में शज़र पत्थर और इससे बनने वाली कलाकृतियों की काफी मांग है। 

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शजर को नया रूप देने का काम हाथ से और केवल एक घिसाई मशीन से होता है। ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं। तैयार शज़र पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1,2,3 ग्रेड में रखकर उसकी कीमत लगाई जाती हैं। इनकी कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं। जानकारों का मानना है कि पूरे विश्व में कहीं और इस तरह का पत्थर नहीं पाया जाता है।

हस्तशिल्पी द्वारिका सोनी का कहना है कि शजर पत्थर पर आकृतियां तब उभरती हैं। जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात को किरण उस पत्थर पर पड़ती हैं। उस समय जो भी चीज बीच में आती है, उसकी आकृति पत्थर पर उभर आती है। हालांकि, विज्ञान के अनुसार शज़र पत्थर डेंड्रिटिक एगेट पत्थर है और ये कुदरती आकृति जो इस पर अंकित होती है दरअसल वो फंगस ग्रोथ होती हैं।

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