बूढ़ा बरगद

May 22, 2020 - 19:03
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बूढ़ा बरगद

@ अम्बिका कुमार शर्मा

घर के सामने लगे सूखे से बरगद को राधेश्याम पलंग पर लेटे-लेटे खिड़की से देख रहे थे। ‘पक्षी’ सब प्रवासी हो गये है, करलव ठीक वैसे ही शांत है जैसे राधेश्याम का जीवन सेवनिबृत्ति के बाद, एकाकी और ठहरा हुआ सा। कितनी यादे इस पेड़ से जुड़ी है। राधेश्याम को याद आने लगा वो पहला दिन, जब उन्होंने यह घर खरीदा था। सब कह रहे थे घर के सामने बड़ा पेड़ होना शुभ नही होता। राधेश्याम तो लोगो के कहने-सुनने से कुछ पछताने से लगे, लेकिन उनकी पत्नी सुधा ने कहा घर के सामने ही बड़े बूढ़े रहेंगें तो उनकी छत्रछाया बनी रहेगी, थोड़ी सेवा करेंगें तो इनका आर्शीवाद भी मिलता रहेगा। सोचते-सोचते राधेश्याम धीरे से मुस्कुरा दिये, सुधा कितनी धार्मिक थी। इस बरगद को पानी देना कभी नही भूलती थी, जब रमेश गर्भ में आया तो सुधा यही कहती थी इन्ही बूढ़े बुजुर्ग बरगद का आशीर्वाद है, ये रमेश।

धीरे धीरे समय बीता, रमेश के बाद सुरेश फिर कुसुम और दिनेश चार बच्चे और छोटी सी क्लर्क की नौकरी। लेकिन सुधा तो घर की लक्ष्मी थी, बच्चों की पढ़ाई हो या अन्य कोई जरूरत, सुधा की बचत की आदत के चलते कभी रुपयों पैसों की कमी नही आई। ये औरते भी न, इनकी दुनिया अपने बच्चे, अपना घर, अपना परिवार तक ही सीमित होता है लेकिन चिंता पूरे जहाँ की रहती है। सुधा भी अपने घर के बड़े की तरह इस बूढ़े बरगद का भी पूरा ध्यान रखती थी, मजाल है कोई एक लकड़ी भी इसकी तोड़ ले जाये, सुधा के बारे में सोच कर राधेश्याम की आंखे भर आईं।

रमेश आई आई टी से इंजीनियर बनने जा रहा था, सबको लगा इंजीनियरिंग का इतना खर्च बड़े बाबू कैसे उठा पायेंगे। मैं खुद भी तो डर रहा था, लेकिन सुधा ने हिम्मत दिखाई और रमेश को इंजीनियरिंग करने भेज दिया। रमेश सुधा से हमेशा कहता था, अम्मा देखना एक बार इंजीनियर बन गया तो तुम्हे और बाबू जी को विदेश ले जाऊंगा। 

बेचारी सुधा पूरी जिंदगी मेहनत करती रही सब का ध्यान रखती रही लेकिन जब सुख का समय आया। रमेश की नौकरी लगी, तीन दिन की बीमारी में ही चल बसी। अच्छे लोगो को भगवान जल्दी ही बुला लेता है, राधेश्याम ने गहरी सी साँस ली, उनकी आंखों से आँसू टपकने लगे। रमेश ने अपने साथ ही काम करने बाली एक इंजीनियर लड़की आरती से शादी कर ली। शादी तो राधेश्याम की अनुमति से ही हुई, लेकिन सबको सुधा की कमी बहुत खली।

रमेश के बाद सुरेश की नौकरी लगी उसकी शादी अपनी ही जाति में राधेश्याम ने खुद ही करवाई। बड़ी बहू तो अमेरिका रह रही थी, छोटी बहू भी कुछ दिनों बाद सुरेश के साथ चली गई। समय से कुसुम की भी शादी हो गई, दो भाई और पिता तीन लोग कमाने वाले थे, तो कुसुम की अच्छी शादी हुई। समय बीता और सुधा के घर मे राधेश्याम और दिनेश दो लोग ही रह गये। दिनेश बेरोजगार था और नौकरी की तलाश में था। राधेश्याम सेवनिबृत्त हो चुके थे, सेवनिबृत्ति में मिली धनराशि से राधेश्याम ने अपने घर का विस्तार कर लिया ताकि कुछ किराएदार रख सके। घर का किराया और पेंशन दोनों से घर अच्छा चल जाता, कुछ पैसों की बचत भी हो रही थी। 

सब संपन्नता, मगर राधेश्याम एकाकी थे। उम्र के इस पड़ाव में आकर आदमी को अपनो की जरूरत कुछ ज्यादा ही हो जाती है। सुरेश तो हर त्योहार में परिवार लेकर आ जाता था, मगर रमेश वर्ष में एक बार वो भी दस पंद्रह दिन के लिये ही आ पाता था। रमेश ने हमेशा कहा बाबू जी साथ चलिये यहाँ अकेले क्यो पड़े रहते है, लेकिन राधेश्याम सुधा की यादों को छोड़ कर कही जाने को तैयार नही थे। राधेश्याम के पूरे वर्ष में सबसे ज्यादा खुशी के क्षण तब होते थे, जब रमेश अपने दोनों पुत्र नौै बर्षीय इयान और पाँच वर्षीय ईशान को लेकर आरती सहित आता था। पिछली बार जब रमेश आया वो दिन राधेश्याम की आंखों में चलचित्र की तरह दिखने लगे।

"रमेश, तुम सबसे बड़े लड़के हो मेरी आय का सबसे बड़ा हिस्सा तुम्हारे ऊपर ही खर्च हुआ है। सबसे छोटा दिनेश है जिसकी नौकरी अभी नही लगी और मैं अब इतना सक्षम नही हूँ कि इसे बड़ी धनराशि देकर कोई बड़ा सा रोजगार दिलवा सकू। अब तुम ही कुछ ठीक सा देख लो।" राधेश्याम ने अपनी बात को अधूरा छोड़ दिया। "जी बाबू जी" रमेश ने अपने पिता को कभी इससे बड़ा उत्तर नही दिया, वह इस बार भी इतना ही बोला और कमरे से बाहर आ गया।

रमेश ने अपने पिता की बात आरती को बताई। 

"तो तुमने क्या सोचा?" आरती ने पूँछा

"तुम बताओ?" रमेश ने पूँछा

"सही तो कह रहे है बाबू जी, आज हम दोनों ही कमा रहे है। बाहर रह रहे है, तो अगर दिनेश कोई ब्यापार यहीं कर ले तो वो बाबू जी की देखरेख भी करता रहेगा। मैं तो कहती हूँ पच्चीस लाख दिनेश के नाम कर दो कुछ अच्छा सा कर लेगा,"  आरती ने कहा।

"पच्चीस बहुत होते है पंद्रह लाख बाबू जी के खाते में स्थान्तरित किये देता हूँ। इतने में कोई भी काम दिनेश शुरू कर सकता है," बोल कर रमेश चला गया।

आरती को रमेश की यह कंजूसी पसंद नही आई, उसने दिनेश से उसके खाते का नंबर लेकर दस लाख रुपये स्थानांतरित कर दिये।

आरती अपनी जगह सही थी, परंतु राधेश्याम के अकेलेपन से उठी खीझ ने उसकी मनोबृत्ति इतनी गंदी कर दी थी कि पक्का रमेश तो और ज्यादा ही दे रहा होगा लेकिन ये महारानी आरती ने रोक दिया होगा। राधेश्याम सोच रहे थे जब उन्हें पता लगा कि रमेश ने उनके खाते में पंद्रह लाख रुपये स्थानांतरित किये है।

एक दिन "दादू यु आर जस्ट लाइक बानयायन ट्री एज माय फादर टेल मी" ईशान ने हँसते हुये राधेश्याम से कहा।

"हाॅ बेटा, मैं बरगद ही हूँ जिसके नीचे कोई पेड़ पनप नही सकता इसीलिए तुम्हारे पापा मेरे साथ रहने को तैयार नही होते। नही तो क्या इस देश मे नौकरी की कमी है क्या?" राधेश्याम का अकेले होने का दर्द फूट पड़ा। ये अलग बात है ईशान के पल्ले कुछ नही पड़ा।

रमेश आरती अपने बच्चों सहित टेम्पो में बैठ कर वापस जा रहे थे। सजल नैनो से राधेश्याम विदा कर चुके थे। फिर अकेले, फिर वही एकांकी।

"बाबू जी बोल रहे थे कि दोनों बच्चों के रंग ढंग विदेशी हो रहे है, और उन्हें अकेलापन बुरा लगता है। इसलिये वापस आकर यहीं बस जाऊं," रमेश ने आरती को टेम्पो में बैठे-बैठे बताया। "मैं नही आऊँगी, यहाँ साड़ी पहने-पहने मेरी कमर दुखने लगती है," बोल कर आरती हस पड़ी।

"अरे विदेश में रह रहे है तो बच्चे विदेशी रंग के तो हो ही जायेंगे, इनसे भारतीय संस्कारो की उम्मीद करना ब्यर्थ बात है," रमेश ने कहा। एयरपोर्ट आ गया, रमेश सहित सब अमेरिका चले गए।

"सुधा, तुम क्यो चली गई, मुझे अकेला छोड़ कर। तुम रोज कहती थी ऑफिस से जल्दी आना, और मुझे देर हो जाया करती थी, देखो अब मैं ऑफिस ही नही जाता लेकिन क्या फायदा। तुम तो नही हो, सुधा ये घर इसकी एक-एक दीवार जो तुमने सजाई है, सब तुम्हारे बिना कितने फीके कितने वेरंग से लगते है। मुझे ही देखो तन्हा और अकेला, मानो हँसना तो भूल ही गया हूँ। अब मुझसे बाहर जाते समय कोई नही पूछता की जेब मे पैसे है या नही, मैंने आफिस में नाश्ता किया या नही, ज्यादा चाय तो नही पी। अब कोई मेरी जेब मे रूमाल नही रखता, खुद ही रखना पड़ता है, जब मुझे सबसे ज्यादा तुम्हारी जरूरत थी, तुम अकेला छोड़ गई, देखो न सुधा। सब कुछ है, पैसा, घर, संपन्न लड़के, लेकिन मैं लाचार तन्हा। लड़को की अपनी दुनिया हो गई, अब वो मेरे साथ नही रहना चाहते। अब कोई मेरी फिक्र नही करता, बहुत अकेला हूँ सुधा।"

सोचते सोचते राधेश्याम को कब नींद आ गई पता ही नही चला।

रात के दो बजे एक टेम्पो दरवाजे पर खड़ी हुई आवाज सुन कर राधेश्याम की नींद खुल गई। इतनी रात गये कौन है? सोचते हुये राधेश्याम ने अपना चश्मा उठा कर घड़ी पर एक नजर डाली, फिर खिड़की की ओर देखा रमेश! इस तरह बिना किसी सूचना के? आश्चर्य चकित राधेश्याम दरवाजा खोलने को उठ गये।

"बाबू जी मैंने कभी आपके सामने जी बाबू जी से ज्यादा बात नही की जबकि मैं इतना बड़ा हो गया हूँ। एक दिन मैने इयान को ज्यादा नेट चलाने के लिये जोर से डॉट दिया तो इसने कॉल करके पुलिस बुला ली, बड़ी मुश्किल से जेल जाने से बचा। तब मुझे लगा अमेरिका में सब कुछ मिल जायेगा लेकिन संस्कार तो केवल इसी देश मे मिलेंगे, आपने तो मुझे आगाह भी किया था। मैं ही नही समझा। अब मैं सबको वापस आपकी छत्रछाया में संस्कार, सम्मान सिखाने के लिये अमेरिका की नौकरी छोड़ कर वापस आ गया हूँ।" राधेश्याम के पूछने पर रमेश ने रोते-रोते बताया।

राधेश्याम गर्व से मुस्कुरा उठे, सामने ईशान को गोद मे लिये। इयान की उगली पकड़े, लाल साड़ी में आरती खड़ी थी। भोर का प्रथम पहर था, पक्षी के चहचहाने की आहट बूढ़े बरगद से आने लगी थी। 

"देखा ‘सुधा’ मौसम बदल गया है, प्रवासी पक्षी वापस आ गए है। कौन कहता है बरगद के नीचे कोई पनप नही सकता। बरगद कुछ दे या न दे छाया तो देता ही है।" राधेश्याम सुधा के माला लगे चित्र से बाते कर रहे थे, उनकी खुशी उनके चेहरे से छलक रही थी।

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