कहानी : तबाही

कहानी : तबाही

@अरूण निगम

ठीक-ठीक याद किया जाए तो शायद ही किसी इंसान के ज़ेहन में वह स्मृतियाँ आयें, जिनकी कहानियां बुजुर्ग सुनाते थे, कि कैसे उस दौर में महामारियां अपने चरम पर जब आती थीं तो क्या गांव, क्या शहर और क्या विलायती मजमें, सब ख़ाक। हर तरफ तबाही के सिवा और कुछ भी नहीं। हर एक-दो फर्लांग पर इंसानी वज़ूद दम तोड़ता दिखाई देता था।

आज के दौर में कोरोना महामारी जिस शक्ल को ओढ़ कर दाखिल हुई है, उसने क्या देश और क्या विदेश सारी सीमाएं ही खत्म कर दीं। हो ना हो इंसानी शरारतों को इसके पीछे जोड़ कर देखना भी सही मालूम होता है। देश के हर इलाके से अब वह चीत्कार सुनाई दे रही है कि कोरोना का कहर अपने चरम पर आ चुका है। जाने कितने परिवारों का संसार लीलने के बाद ये अब भी थमी नहीं है। 

हुकूमत ने जब लाॅकडाउन का ऐलान किया तो जाने कितनी ही ज़िन्दगियों को घुटनों पर गिड़गिड़ाते देखना तो रोज की सी बात हो चली थी।

ऐसे ही चेहरों में एक आम सा चेहरा उस ”रमज़ान“ का भी था, जिसे आला टांगे डॉक्टर ने अपनी बेरौनक भद्दी आवाज में कहा था, ”इसे यहाँ से ले जाओ और इसके क्रिया कर्म का इंतजाम करो“। 

पिछले पांच दिनों से अस्पताल के बाहर यूं ही गुमशुदा बैठा रहता था रमज़ान। और अंदर उसका बाप बीमारी से लड़ रहा था। आज वार्ड बॉय ने उससे पूंछा, ”लावारिस है क्या? तो रुलाई भी ना फूट पाई थी रमज़ान की। 

हाफिज़ के अलावा उसका था ही कौन? एक बूढ़ी माँ थी। अभी एक पखवारे पहले काम बंद होने के चलते गांव वापस लौटा था, तभी से सर्दी-जुकाम ने उसे जकड़ रखा था। गांव से बाहर जाकर दिहाड़ी मजदूरी का काम कर थोड़़ा बहुत बचा कर अपनी माँ को देता था। जिससे

हालिया गुज़ारा हो जाता था। पर अबकी तो वो काम भी ना मिला था। तबाही इस कदर फैली कि रातों-रात कामों में ताले पड़़ गए, वापस घर को आना पड़ गया। पैसा खत्म और पाई-पाई की मोहताजी के ऊपर हाफिज़ की बीमारी, मानो कयामत ही आ गयी। शायद खुदा भी बेफ़िक्र हो चला था।

वैसे तो कोई खास ख़्वाहिश थी नहीं, हाफ़िज़ की बस बात निकली तो उसने अब रमज़ान से यही कहा था, ”जब मेरा इंतकाल हो तो मुझे गांव के कब्रिस्तान में ही पुरखों के पास आब-ए-जमजम डालकर दफन कर देना, बस इतनी सी अपनी मिट्टी की जन्नत नसीब करा देना।“ हाफ़िज़ पांच वक्त का नमाजी था, इस बार सूरत से लौटते वक्त उसने रमज़ान से यह बात दोहराई थी।

वार्ड ब्वाॅय की बात अनसुना करके अपने अब्बा की इच्छा पूरा करने के लिए जब वह आसपास जमजम की तलाश में निकला तो क्या मस्जिद और क्या इंसान, पड़ोस में भी कोई मुस्लिम घर ना मिला। लोगों में डर इतना कि कुंडी लगाकर अंदर कैद थे। क्योंकि बाहर निकलो

तो पुलिस खाने को दौड़ती थी। इंसानी ज़रूरतें कितनी भी क्यों ना हों? अपनी-अपनी ज़दों में गिरफ़्त थीं। सड़कें, सुनसान चैराहों के खोमचे, रेहड़ी, जैसे कि वक्त ठहर सा गया हो। 

काफी भटकने के बाद जब खाली हाथ रमज़ान वापस लौटा तो अस्पताल वालों ने लावारिस लाश समझकर मुक्तिधाम की गाड़ी बुला कर लाश को जलाने का फरमान दे दिया था।

रमजान भागा-भागा मजिस्ट्रेट के पास गया और गिड़गिडाया, "साहब मेरा बाप लावारिस नहीं है, रहम करो मालिक साहब"। 

थोड़ी दूरी बनाते हुए मजिस्ट्रेट ने कहा, "देख! तेरा जानना जरूरी है। औरों का तरह तेरे बाप की मौत भी कोरोना वायरस से हुई है, तुझे भी हमारी निगरानी में रहना पड़ेगा। बाकी क्रिया कर्म का बंदोबस्त हम कर रहे हैं"।

सुनते ही रमज़ान मजिस्ट्रेट के पैरों पर गिर पड़ा,
"साहब अपने अब्बा को मैं ही दफनाऊँगा"। 

मजिस्ट्रेट दो कदम पीछे हटते हुये कांस्टेबल और वार्डब्वॉय को इशारा करता है और वो रमज़ान को खींचते हुए क्वॉरेंटाइन रूम में ले जाते हैं।

कोरोना वायरस के कारण मौत होने से पूरे महकमे में हड़कम्प था। कोरोना संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ रही थी तो प्रशासन भी किसी भी तरह की चूक नहीं करना चाहता था।

पर रमज़ान की नजर में, ये वो संवेदनहीन सरकार थी, जिसकी सरकारी व्यवस्था पर उंगली उठानी जायज़ है। जो उसके बदनसीब बाप को दो ज़ख जमीन भी नसीब ना करा सकी। 

मगर ये तबाही खत्म कहां हुई थी? अस्पताल में बितायी क्वॉरेंटीन रातों में उसने वो सब देखा जहां हर तरफ लोग बीमारी से तड़प रहे थे, कई रोते गमगीन चेहरे, इन सब के बीच अपना गम वह लगभग भूल सा गया था। अभी वो माँ को दो जून की रोटी के बारे में सोच ही रहा था कि किसी ने उसे आकर बताया कि सरकार के नुमाइंदे उसके टूटे-फूटे घर में तीन महीने का राशन पानी और पेंशन का इंतजाम कर चुके हैं।

रमज़ान ने अपना बाप खोया था, लेकिन वक्त भी कभी-कभी उस वक्त से रूबरू कराता है जब अपना गम दुनियाबी गमों के आगे फ़ीका लगने लगता है। अभी तो इतनी ख़बर भी उसके लिए खुशी से कम नहीं थी कि सरकार ने कुछ तो उसका दुःख साझा किया और उसकी बूढ़ी माँ के लिए इतना सब इंतज़ाम किया।

बिना हंसी के जो सुकून के भाव होते हैं, वह रमज़ान के चेहरे पर आ चुके थे। उसने सरकार और सूबे के वजीर-ए-आला का शुक्रिया अदा किया और सोचा कि आज की इबादत में वो खुदा से सिर्फ यही मांगेगा कि यह तबाही अब और बिना नुकसान पहुंचाए मेरे मुल्क से बाहर निकल जाए और रमज़ान जा-नमाज़ बिछा देता है।

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