औरंगजेब का दर्प चूर करता बालाजी का मन्दिर
- मुगलिया सल्तनत के मूर्ति भंजक बादशाह औरंगजेब ने चित्रकूट में बनवाया था बाला जी का मंदिर
- गायब कर दिया गया औरंगजेब का फरमान, अवैध कब्जों से कराह रही बेशकीमती धरोहर
यथा नाम ततो गुण.... चित्रकूट की माटी वंदनीय व पूज्यनीय यूं ही नहीं हैं। यहां पर ऐसी-ऐसी गाथाएं छिपी हैं जिन्हें सुनकर सहसा विश्वाहस नहीं होता। हाथ कंगन को आरसी क्या.. वाली कहावत के तौर पर जब प्रत्यक्ष किम प्रमाणम् के तौर पर देखते हैं तो हमारे गौरवशाली अतीत के पन्ने हमारे सामने खुलते लगते है। चित्रकूट की धरती पर मौजूद एक ऐतिहासिक धरोहर ऐसी भी है जिसे देखकर लोग सहसा विश्वास नहीं कर पाते कि इसको उस मुगल शासक ने बनवाया जिसका नाम मूर्तिभंजक के तौर पर कुख्यात हैं। लेकिन जिस चित्रकूट की धरा पर विपरीत प्रकृति के जीव- जंतु आपस में प्रेम से रहते हों, वहां पर सब संभव है।
हिंदू धर्म ग्रंथों का अनुवाद करने वाले दारा शिकोह के भाई औरंगजेब ने जब दिल्लीम की गद्दी संभाली तो उसका लक्ष्य वैदिक संस्कृति को नष्ट भृष्ट करना था। उसने पूरे देश में घूम-घूमकर मंदिरो व मठ को तहस-नहस कर दिया। काशी का विश्वनाथ मंदिर हो या फिर श्रीकृष्ण जन्म भूमि हर जगह पर विवाद की जड़ मस्जिद बनवा दीं। इसी दौरान वह चित्रकूट आया और यहां पर आकर उसके साथ वह घटित हुआ जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।
प्रयागराज के रास्ते चित्रकूट आए दिल्ली सल्तनत के शहनशाह औरंगजेब की सेना ने चित्रकूट में वर्ष 1694 में जैसे ही आक्रमण किया, यहां के धर्मानुरागी भक्ति से भरे लोगों ने चित्रकूट के महाराधिराज स्वातमी मत्तगयेन्द्रनाथ महराज जी से प्रार्थना की। औरंगजेब को जब यह मालूम चला कि स्वामी मत्त्गयेन्द्रनाथ जी ही चित्रकूट के महाराजा हैं तो वह बौखला गया। उसका मानना था कि वह सारी कायनात का मालिक है। वह रामघाट में स्थित महाराजाधिराज के मंदिर में पहुंचा और भगवान भोलेनाथ के लिंग को तोड़ने के लिए टांकी लगवाने का प्रयास किया। जैसे ही उसने यह कृत्य करना चाहा, अचानक कहीं से भीमकाय वानरों का झुंड आ गया और देखते ही देखते मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। कुछ ही देर में पूरी सेना को अचेतावस्थाा में पहुंचा दिया। अकेला बादशाह की चेतन अवस्था में था। अब उसे डर लगा कि पूरी सेना धराशायी हो गई है।
उसे यहां के लोग मार डालेंगे। लिहाजा मजबूर होकर वह स्थाहनी लोगों के पास गया। तभी वहां पर उसे किसी ने संत बाबा बालकदास के पास जाने का सुझाव दिया। सिर से अपना ताज हटाकर हाथ जोड़े नंगे पैर वह बाबा बालकदास के पास पहुंचा। उसने पूरी घटना बताकर सेना को चेतन अवस्था में लाने के उपाय के बारे में विनती की। बाबा बालकदास ने कहा कि संत न जाति देखता है और न कर्म। तुमने जो किया, वह तुम्हारे साथ है, हमारा धर्म तो सबका भला करना है। इसके बाद उन्होंने अपने धूने से भभूति उठाई और बादशाह को देकर कहा कि इसे अपनी सेना के उपर जाकर छिड़क दो। बादशाह ने ऐसा ही किया और देखते ही देखते सारी सेना फिर से उठ खड़ी हुई। औरंगजेब को चित्रकूट आकर लंगोटी लगाए फकीर का करिश्मा देखकर यह मालूम चला कि वास्तव में फकीर ही असली बादशाह है। इसके बाद बादशाह ने संत से निवेदन किया कि इस दास्तांन को तारीख में दर्ज होना चाहिए। आप आदेश करिए कि वह क्याो कर सकता हैं।
संत ने कहा कि यह आपकी मर्जी है, आप के दिल में जो कुछ भी हो आप कर सकते हैं। फिर क्या, बादशाह ने विचार किया और वहीं रामघाट के समीप एक मंदिर बनाने का निर्णय लिया। उन्होंने यहां पर एक मंदिर बनाया, जिसको बालाजी का नाम दिया गया। आज भी वह मंदिर हिंदुस्तान के बादशाह की हार की कहानी कहता दिखाई देता है। बादशाह ने ताम्रपत्र सनद के रूप में मंदिर के मुख्यी पुजारी को सौंपी। इसमें मंदिर की पूजा व भोग के लिए तत्कालीन एक रूपया प्रतिदिन राजकोष से देना मुकर्रर किया गया। इसके साथ ही कई गांवों की जगीरें भी मंदिर की अन्यर व्य वस्थाकओं के लिए लगाई गईं। राजकोष से रूपया औरंगजेब के बाद भी मुस्लिम व अंग्रेजों के जमाने तक मंदिर प्रशासन को मिलता रहा, लेकिन देश के स्वतंत्र होने के बाद यह राशि बंद कर दी गईा इधर मंदिर का प्रबंधन देखने वाले संत भी गोलोकवासी हो गए।
मंदिर के अगले महंतो ने सुव्यवस्था को कुव्यवस्था में तब्दील कर दिया। मंदिर की जमीनों को बेंचने के साथ ही ताम्रपत्र भी गायब कर दिया गया। पूर्व जिलाधिकारी जगन्नाथ सिंह ने मंदिर के ताम्रपत्र को ढूढवाने का बहुत प्रयास किया, पर वह सफल नहीं हुए । आजादी के सात दशक और चित्रकूट को जिला बनने के 22 साल बीतने के बाद भी आज तक इस मंदिर की सुध लेने का काम किसी ने नहीं किया। भले ही जिला बनने के बाद तीन बार भाजपा सरकार रही हो, पर इस मंदिर पर अवैध कब्जे और रखरखाव में खराबी लगातार बरकरार है। लगभग हर जिलाधिकारी ने इस मंदिर का पूरा इतिहास जानने के बाद भी इस मामले में हाथ डालना उचित क्यों नहीं समझा यह बात सभी स्थानीय धर्मावलंबियों की समझ से परे है।
- संदीप रिछारिया
(लेखक बुन्देलखण्ड कनेक्ट के कार्यकारी सम्पादक हैं)