बुंदेलखंड में आज भी जीवंत है सावन में झूला और आल्हा गायन की परम्परा
सुमेरपुर विकास खण्ड क्षेत्र का बिदोखर ऐसा गांव है जहां पवित्र मास सावन में चलने वाले भांति भांति के कार्यक्रम...
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10 दिन चलता है बिदोखर का झूला महोत्सव
हमीरपुर। सुमेरपुर विकास खण्ड क्षेत्र का बिदोखर ऐसा गांव है जहां पवित्र मास सावन में चलने वाले भांति भांति के कार्यक्रम आल्हा गायन, झूला महोत्सव, कीर्तन, भजन, सावन गीत, कजली गीत आदि बुंदेली लोक परंपराओं का अस्तित्व आज भी कायम है। गांव में गूंजने वाली बुंदेली लोक संगीत की तान आज भी सुनाई देती है।
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बिदोखर गांव के राम जानकी सन्त बद्रीदास मंदिर में नाग पंचमी से श्रावण पूर्णिमा तक 10 दिनों तक चलने वाले श्रावणी झूला महोत्सव की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा की आज भी कायम है। समय का अभाव होने के बाद भी गांव के कलाकारों के विशेष लगाव एवं जागरूकता सक्रियता से उनके द्वारा आज भी बुंदेली लोक परंपराओं का पूरे जोर शोर और हर्षाेल्लास से निर्वहन करते हुए उनको जीवंत बनाए रखने में कोई कोरी कसर नहीं छोड़ी जाती है। बिदोखर के आल्हा गायक रणविजय सिंह ने बताया कि बिदोखर सहित अन्य गावों में में झूला और आल्हा गायन काफी लोकप्रिय है। इस परंपरा के अनुसार झूला अब भी शगुन माना जाता है। उन्होंने कहा कि सावन में प्रकृति श्रृंगार करती है जो मन को मोहने वाला होता है। यह मौसम ऐसा होता है जब प्रकृति खुश होती है तो लोगों का मन भी झूमने लगता है।
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लोक संगीत के कलाकार अमर सिंह बताते हैं कि लोक जीवन में आनंद, उत्साह, प्रेम-एकता और धर्म संस्कृति की भावना भरने वाली सावन मास से जुड़ी तमाम बुंदेली लोक परंपराओं की एक अलग ही पहचान रही है, बुंदेलखंड सांस्कृतिक परंपराओं का धनी रहा है। बुंदेली साहित्य और संस्कृति में एक अनूठा और कच्ची मिट्टी जैसा सोंधापन है। उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड के चर्चित कवि जगनिक और ईसुरी जैसे कवियों ने यहां के साहित्य को समृद्ध किया है, साथ ही लोकगीत, लोक गाथा, वीर गाथा लोक साहित्य के माध्यम से परंपराओं को जीवित रखा है। क्योंकि परंपराएं समाज को संस्कारित करती हैं। लोक संस्कृति में विद्यमान लोक मूल्य, लोकाचरण, लोकजीवन, लोक साहित्य व लोक कलाओं से लोगों को जीवन जीने की आनंद भरी राह मिलती है, यही कारण है कि परंपराओं का लोक जीवन में आज भी विशेष स्थान है, सावन में प्रेमरस से भरे सावन गीत प्रचुर मात्रा में आज भी गाए जाते हैं।
आल्हा गायक दिनेश सिंह ने बताया कि सावन में वीर रस एवं श्रंगार रस से ओतप्रोत आल्हा गायन का अस्तित्व आज भी कायम है, सावन आते ही आल्हा काव्य और रायसो को अनेक पंक्तियां वातावरण में समरसता घोलती हैं। सिर धरे चकौटी (खप्पर) चली देखने सावन, संग सखी सहेली और मनभावन सावन...आदि आल्हा पंक्तियों का गायन लोग आज भी बड़े चाव से सुनते हैं, उन्होंने कहा कि गांव में आज भी आल्हा गायन से विशेष रुचि रखने वाले लोग कहीं स्मार्टफोन तो कहीं बुफर, म्यूजिक प्लेयर आदि के माध्यम से पूरे सावन पर्यंत भाव-विभोर होकर सुनते हैं। पूरे महीने लोग आल्हा ऊदल की वीरगाथा का गुणगान करते नज़र आते हैं, उधर उक्त गायन से जुड़े लोग रक्षाबंधन पर्व के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में गायन के लिए अभ्यास करते हैं। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में आज भी सावन में देव स्थान में झूला डालने एवं आल्हा गायन की परंपरा उनके जहन में रची बसी है।
हिन्दुस्थान समाचार
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