कहाँ हो रही है योगी सरकार से चूक
गाजियाबाद में बदमाशों द्वारा पत्रकार की हत्या से खौफ का माहौल बन गया है तो वहीं निरंकुश अफसरशाही व बिगड़ती पुलिस की छवि और कानून व्यवस्था की चर्चा से सोशल मीडिया का माहौल और जमीनी चर्चा की सच्चाई के स्तर का मिलाजुला असर नजर आ रहा है...
 
                                    हमें भाजपा सरकार बनने के दस - पंद्रह दिनों के अंदर चलना होगा। हमे सोचना होगा कि महीने दो महीने की सरकार में माहौल किस तरह बदल गया था। एकाएक योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के पश्चात हर तरफ से अनुशासन एवं ईमानदारी का बोलबाला क्यों सुनाई दे रहा था , फिर अचानक क्या हुआ जो इन दिनों की खबरें स्पष्ट बयां कर रही हैं। क्यों सोशल मीडिया पर घूसखोरी की बातें सरेआम हो रही हैं तो वहीं निरंकुश अफसरशाही से लोग स्वयं को त्रस्त बता रहे हैं।
शुरूआती दिनों मे थाने के अंदर एक आवाज गूंजती थी कि योगी मुख्यमंत्री हैं। पुलिस एकदम चुस्त-दुरुस्त नजर आ रही थी। लोग कहते नजर आ रहे थे कि पुलिस अब पैसा नहीं लेती , यह सब जुबानी चर्चा थी। सबकुछ अनुशासनात्मक होने की चर्चा चारो तरफ हो रही थी। जिसमे भाजपा सरकार होने की बात भी सुनाई दे रही थी।
सरकार मे आने वाली भाजपा का नारा " ना गुण्डाराज ना भ्रष्टाचार अबकी बार भाजपा सरकार " था। इस नारे का असर ही कहा जा सकता है कि योगी आदित्यनाथ के शपथ लेने के पश्चात भ्रष्टाचार और गुण्डाराज पर स्वयं लगाम कसती नजर आ रही थी।
एक सबसे बड़ी बात यह थी कि भाजपा का कार्यकर्ता आमतौर पर बुद्धिजीवी माना जाता है। बहुतायत कार्यकर्ता श्रेष्ठ वक्ता और जानकार माने जाते हैं। इनकी बुद्धिजीविता की चर्चा आम रहती है। खासतौर से संघ से तपकर आया हुआ कार्यकर्ता विधि विशेषज्ञ और संविधान का ज्ञाता होने के साथ समाज की संवेदनशीलता को भी महसूस करने के लिए जाना जाता है। विद्यार्थी परिषद से आया हुआ कार्यकर्ता जुझारू व्यक्तित्व का धनी होता है। यह भी एक बड़ी वजह थी कि बहुमत वाली सरकार और जमीन पर बुद्धिजीवी कार्यकर्ता , बेशक उनमे से थोड़े बहुत बुद्धिजीवी हो ना हों पर मेढक की आवाज के बीच मेढक की ही आवाज सुनाई देती है , भले झींगुर कितना भी सांए सांए करें। तो इन बुद्धिजीवी कार्यकर्ताओं का भी प्रशासन के ऊपर बड़ा मानसिक दबाव था।
प्रशासन हमेशा शासन की मंशा के अनुसार काम करना जानता है। चूंकि शासन की लाठी की मार प्रशासनिक व्यक्ति बामुश्किल ही सह पाता है। इसलिए जनपद के प्रत्येक विभाग पर ईमानदारी और जिम्मेदारी की शपथ का योगी असर नजर आ रहा था।
गडबड सिर्फ एक बयान से शुरू हुआ। राजधानी लखनऊ से एक बयान आता है कि कार्यकर्ता अफसरों के कार्यों मे हस्तक्षेप ना करें। इस बयान के बाद से माहौल धीरे-धीरे बदलने लगा। जनपद स्तर मे अर्थात लोकल फाॅर वोकल की नहीं सुनी जाने लगी। कार्यकर्ता लोकल फाॅर वोकल ही होता है और जब लोकल महत्व नहीं तो चाइनीज प्रोडक्ट का वर्चस्व होने लगता है। ठीक ऐसा ही दो - तीन महीने बाद होने लगा।
चर्चा सरेआम होने लगी कि भाजपा कार्यकर्ता की थाने मे भी नहीं सुनी जा रही। तत्पश्चात यह आम बता हो गई कि जनपद स्तर में कार्यकर्त्ताओं का वर्चस्व कम होने लगा। अनेक ऐसे प्रकरण सुनने को मिले जिसमें भाजपा जिला संगठन को महत्व दर्शाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
इस तरह बड़ी चर्चा का विषय यह हो गया कि अधिकारियों के स्थानांतरण का निर्णय लखनऊ से सीधा हो सकता है। किसी अधिकारी पर कार्रवाई भी लखनऊ से सीधे हो सकती है। वह भी यह सब तब संभव होगा जब लखनऊ के उत्कृष्ट दलीय संगठन में पैठ रखने वाले सरकार पर सीधी हस्तक्षेप रखने वाले चाह लें अन्यथा एक अधिकारी टस से मस नहीं हो सकता। जबकि जिलाध्यक्ष एक ऐसी ताकत मानी जाती रही है कि वह चाह ले तो किसी भी भ्रष्ट और निरंकुश अधिकारी पर सीधी कार्रवाई करवा सकता है। किन्तु जनपद के नियंत्रण में सिर्फ संगठन की जिम्मेदारी भर रह गई। सुनने मे आता रहा कि बड़ी मुश्किल से कभी किसी अधिकारी - कर्मचारी पर अनियमितता के चलते कार्रवाई करवा पाए तो करवा पाए।
यही बड़ी वजह है कि कुछ खास प्रभावशाली जनपदों को छोड़कर सब तरफ से निरंकुश अफसरशाही की गूंज गूंजती जा रही है। बिजली की समस्या ट्विटर पर छाई रहती है। यदि बिजली ठीक से नहीं मिलेगी तो पीने के पानी का संकट भी खड़ा रहता है। महामारी के समय जनता बिजली से त्रस्त रही।
अब पुलिस प्रशासन की कार्यशैली को लेकर संगठित सवाल उठ रहे हैं। गाजियाबाद मे बदमाशों द्वारा पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर देने के बाद सवाल बड़ा संगीन हो गया है। अपराधियों के खिलाफ दम भरने वाली सरकार के सामने कानून व्यवस्था और अपराधी ही चुनौती के रूप मे खड़े होते नजर आ रहे हैं।
यह सच है कि अफसरशाही को बढ़ावा देना जनता से ज्यादा सरकार के लिए नुकसानदेह है और इस सरकार मे यह नैरेटिव बनता जा रहा है कि अफसरशाही हावी हो चुकी है। इसमे जितनी सच्चाई नजर आती है उससे यही पता लगता है कि भाजपा के सामने अगले चुनाव मे अफसरशाही ही बड़ा मुद्दा होगा।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सक्षम हैं और यदि चाह लें अभी भी सबकुछ नियंत्रित किया जा सकता है। भाजपा के कार्यकर्ता संतुष्ट होंगे तो भविष्य मे सरकार की वापसी के आसार बढेगे। किन्तु दुखद सच्चाई है कि जनपद स्तरीय भाजपा कार्यकर्ता निराश हो चुके हैं , बेशक सत्ता के प्रभाव मे वर्चुअल मीटिंग जरूर करते हैं।
इन लोगों को सपा - बसपा के कार्यकर्ताओं की हनक याद आती है। हालांकि उसमे भी तमाम खामियां हैं पर अफसरशाही की प्रताड़ना का सामना किसी को बामुश्किल ही करना पड़ा होगा। अब तो पुलिस और कानून व्यवस्था से ही योगी सरकार पर सवालों की चर्चा गरम है। जबकि तब थाने पर अन्य दलों के कार्यकर्ताओं की बात गौर से सुनी जाती थी।
यही इस सरकार की बड़ी खामी समझ आ रही है। जिसकी समीक्षा भाजपा जैसे दल और सरकार को स्वयं करनी चाहिए। समय अभी भी है कि अफसरशाही पर लगाम कसी जाए और अफसरों पर दंडात्मक कार्रवाई करने मे तनिक संकोच ना हो , कार्यकर्ता का जनपद में आत्मसम्मान बना रहे व हौसला बुलंद हो। योगी सरकार की शुरुआती दिनों की हनक और ठसक का असर 2022 तक साफ - साफ नजर आए तभी पुनर्वापसी संभव होगी।
"कहाँ हो रही है योगी सरकार से चूक"
 लेखक: सौरभ द्विवेदी, समाचार विश्लेषक
लेखक: सौरभ द्विवेदी, समाचार विश्लेषक                        
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