जो भीतर घटित होता है उसकी चर्चा नहीं होती

कितनी गहरी बात है कि व्यक्ति के भीतर बहुत कुछ घटित होता है , जो भीतर घटित होता है उसकी चर्चा नहीं होती। हम व्यवस्था की चर्चा करते हैं , जो बाहर घटित होती है ! व्यवस्था बिल्कुल बाहर की बात है और अंदर की बात हम कर नहीं सकते , चूंकि अंदर की व्यवस्था हमारे अंदर घटित होती है। वह हमारी निजी व्यवस्था होगी , निज जीवन की व्यवस्था। भला निजी जीवन कोई ' जी ' पाया है ?

Jul 20, 2020 - 17:14
Jul 20, 2020 - 17:14
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जो भीतर घटित होता है उसकी चर्चा नहीं होती

जिया होगा कोई - कोई पर उसने भी सार्वजनिक नहीं किया। इसलिए नहीं किया कि बाहरी व्यवस्था उसके खिलाफ खड़ी थी। बाहर की व्यवस्था से अंदर की व्यवस्था का संबंध हो ही नहीं सकता , दोनों एक-दूसरे के खिलाफ हैं और यही जिंदगी का संघर्ष है। इसलिए जिंदगी हमेशा कुरूक्षेत्र के मुहाने पर खड़ी रहती है।

यदि हम अंदर से जीवन को जीने लगें तो उसमे बड़ा आनंद है। उसमे बड़ा सुख है। वही जीवन का आनंद हो जाता है और महसूस होता है कि हाँ हम जीवन जी रहे हैं परंतु बाहर की व्यवस्था देखते ही अंदर की व्यवस्था अवैध हो जाती है , बाहर के लोगों को पता लगेगा तो अपराध हो जाएगा। पाप हो जाएगा और हो सकता है कि समाज मे ' थू - थू ' हो जाए।

जीवन मे यह भी एक बड़ा भय है। चरित्र का संतुलन स्थापित करते रहना पड़ता है और जहाँ संतुलन स्थापित होगा वहाँ व्यापार शुरू हो जाता है फिर जीवन का अस्तित्व कहाँ है ? महिलाओं के मसले मे जीवन का अस्तित्व बड़ा अलग है। महिलाओं के जीवन का अस्तित्व है भी या नहीं ? यह कोई महिला अंदर की घटी घटना  से बाहर जगत मे बता ही नहीं सकती। वह बताएगी तो एक बड़े वर्ग में भूकंप से बड़ा भूकंप आ जाएगा। तमाम लोगों के दौर का ज्वालामुखी धधक जाएगा और उस महिला के खिलाफ भी बाहरी व्यवस्था की महिला आ खड़ी होगी ! किन्तु जिंदगी कोई अंदर की घटी घटना से नहीं जी पाता , वह निज जीवन का फैसला भी नहीं कर पाता। सबकुछ व्यवस्था है और वह भी बाहरी व्यवस्था।

यह वैसी ही बाहरी व्यवस्था हुई जैसे जेल के अंदर खड़ा हुआ आदमी। जेल की छड़ों को पकड़कर खड़ा हुआ आदमी और बाहर खड़े किसी परिचित से बतिया रहा है। फिल्मों मे ऐसा सीन खूब दर्शाया जाता है , कोई नायक - कोई खलनायक जेल चला जाता है फिर सीखचों को पकड़कर खड़ा रहता है। वही जेल जैसी संसार मे बाहरी व्यवस्था है , बेशक उड़ाने भरते हैं और स्वतंत्र विचरण करते नजर आएं पर विचार करें तो व्यवस्था की जेल के दौर कैद पाएंगे जीवन को ! पर इतनी गहराई मे सोचने के लिए फुर्सत किसे है ?

यहाँ आदर्शवाद का ढकोसला है। आदर्श कौन है ? जो बाहरी व्यवस्था पर अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। अंदर से वो क्या है ? घर के दरवाजे पर पर्दा है और बाहर से घर बड़ा खूबसूरत लग रहा है , डेंट - पेंट है। एकदम व्यवस्थित नजर आ रहा है। लेकिन पर्दे के अंदर किसी राहगीर की नजर जा पाएगी ? जब पर्दे के अंदर नहीं झांक सकते फिर बाहर से इमारत की खूबसूरती का क्या वर्णन करना ! यही वो बाहर की व्यवस्था है जो अंदर से जीने ही नहीं देती !

हम सभी के अंदर कुछ ना कुछ अलग घटित हो रहा है। और यह दौर तो बड़ा गजब है , जब महामारी से सबका सामना है। महिला हो या पुरूष , बच्चे हों या युवा अथवा हों बुजुर्ग लगभग सभी को कुछ ना कुछ सताया होगा पर क्या अभी तक किसी ने खुलकर कहा ! अंदर की घटना को कहा ? सब परोक्ष रूप से जरूर बोले होगें और बोलकर खुद को संतुष्ट कर लिए होंगे लेकिन बाहर वालों को तनिक भान भी ना हुआ , चूंकि वह अंदर से नहीं जुड़े थे।

अंदर की बात को कोई अंदर का व्यक्ति ही महसूस करेगा और आपके अंदर कौन है ? क्या आप स्वयं के अंदर हैं ? या कोई है जो आपके अंदर हो , है विश्वास ? एक व्यवस्था स्वयं से स्वयं के लिए होनी चाहिए ! पर क्या यह संभव है ?

लेखक: सौरभ द्विवेदी, समाचार विश्लेषक

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