वर्चुअल चुनाव प्रचार से प्रत्याशियों के अनाप शनाप खर्च पर लगेगा ब्रेक

मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा पांच राज्यों में चुनावों के ऐलान के साथ ही 15 जनवरी तक रैलियों, पदयात्राओं, साईकिल, बाइक रैली व जनसभाओं..

वर्चुअल चुनाव प्रचार से प्रत्याशियों के अनाप शनाप खर्च पर लगेगा ब्रेक
फाइल फोटो

राकेश कुमार अग्रवाल (Rakesh Kumar Agarwal)

मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा पांच राज्यों में चुनावों के ऐलान के साथ ही 15 जनवरी तक रैलियों, पदयात्राओं, साईकिल, बाइक रैली व जनसभाओं पर प्रतिबंध लगाने एवं वर्चुअल माध्यम से ही चुनाव प्रचार करने पर जोर देने के साथ ही इस बात के आसार बनने लगे हैं कि 2022 और कोरोना काल चुनाव सुधारों का एक बड़ा वाहक बनने जा रहा है। कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है। पल पल बदलती दुनिया में कोई भी चीज हमेशा के लिए स्थायी रहने वाली नहीं है।

ऐसे में राजनीति , चुनावी प्रक्रिया , जनसम्पर्क के तरीके व चुनाव प्रचार भला इस बदलाव से कैसे अछूते रह सकते हैं। चुनाव आयोग ने चुनाव लडने के लिए प्रत्याशियों के खर्च की एक सीमा तय कर रखी है। लेकिन हकीकत यह भी है कि उम्मीदवार उक्त सीमा से कई गुना अधिक खर्च कर डालते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे प्रत्याशी ने चुनाव जीतने के नाम पर  अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया हो। एवं वह पैसे की धौंस दिखाकर चुनाव का मुख अपने पक्ष में मोडना चाहता हो। 

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देखा जाए तो विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक लम्बी , थकाऊ और खर्चीली चुनाव प्रक्रिया हैं। जैसे सार्वजनिक जीवन में पग पग पर लोगों से धनउगाही की जाती है वैसे ही राजनीति से जुडे लोगों से सांसद या विधायक बनना चाहते हैं उन्हें भी टिकट पाने के पहले ऐसी ही  धनवसूली से गुजरना पडता है। टिकट पाने से पहले और टिकट पाने के बाद तो पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है। क्योंकि प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में लगभग तीन सौ गांव व 8-10 लाख की आबादी होती है। इतनी संख्या में लोगों तक पहुंचना उम्मीदवार के लिए संभव ही नहीं है। ऐसे में चुनाव प्रचार , रैलियों व जनसभाओं के माध्यम से चुनाव प्रचार किया जाता रहा है। ताकि पार्टी और प्रत्याशी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके। 

बीते दो दशकों से राजनीति के प्रति उस तबके से जुडे़ लोगों का भी रुझान बढा है जो कुछ वर्षों में धन्नासेठ बना और जिसका परिवार राजनीति से कोसों दूर रहा है। जातियों और धर्म की गणित लगने लगीं। जिन्होंने ठेकेदारी , अवैध खनन , अपराध की दुनिया केे साथ नौकरशाही में रहकर अकूत कमाई की वे लोग भी राजनीति में कैरियर बनाने उतर पडे। सत्ता के गलियारों में पैठ बनाने के लिए इन्होंने अपनी कमाई का बडा हिस्सा पार्टी फंड से लेकर स्थानीय स्तर पर इमेज बिल्डिंग व ग्रास रूट लेवल पर चुनाव को मैनेज करने में इन्वेस्ट किया। 

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टीवी चौनलों पर बहस , न्यूज पेपरों में मनमाफिक खबरें छपवाना व जनसभाओं की जोरदार कवरेज के  माध्यम से चुनाव प्रचार का परम्परागत तरीका अब वर्चुअल और सोशल मीडिया की ओर बढ़ चुका है। फेसबुक , वाटसएप , इंस्टाग्राम , ट्विटर का तमाम राजनीतिक दल लम्बे अरसे से इस्तेमाल करते आ रहे हैं। सभी पार्टियां सोशल नेटवर्किंग साइट्स का अपनी पार्टी के पक्ष में प्रचार करने के  इस्तेमाल करती हैं। लगभग सभी राजनीतिक दलों की अपनी आईटी सेल है।

जो अपने अपने दलों की नीतियों और कार्यक्रमों को प्रचारित करती हैं। सोशल मीडिया पर यूपी के सभी दिग्गज राजनेताओं के ट्विटर व फेसबुक एकाउंट बने हुए हैं। जिनके फालोअर की संख्या भी करोडों में है। योगी आदित्यनाथ के ट्विटर पर 1.6 करोड तो फेसबुक पर 68.76 लाख , सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव के ट्विटर पर डेढ करोड व फेसबुक पर 75 लाख फालोअर हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के ट्विटर पर लगभग दो करोड व फेसबुक पर 46 लाख फालोअर हैं। उनकी बहन व कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के ट्विटर व फेसबुक दोनों पर लगभग 45 -45 लाख फालोअर हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती जरूर न्यू मीडिया पर इतना सक्रिय नहीं है फिर भी ट्विटर पर उनके 23 लाख से अधिक फालोअर हैं। 

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इस तथ्य को कोई  नकार नहीं सकता कि सोशल मीडिया और वर्चुअल मीडिया दोनों प्लेटफार्म पर बीजेपी बखूबी सक्रिय है। बीजेपी का आई टी सेल तो अन्य दलों के मुकाबले ज्यादा तेज व सक्रिय है। योगी आदित्यनाथ को लैपटाप चलाना नहीं आता जैसा तंज कसने वाले व ट्विटर पर सबसे ज्यादा सक्रिय राजनेता अखिलेश यादव वर्चुअल माध्यम से रैलियों के विरोध में आ खडे हुए हैं। क्योंकि यह माध्यम चुनाव प्रचार के लिए ज्यादा मारक है। सबसे बडी समस्या लोगो को सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर जोडना है। उन्हें जनसभाओं के वीडियो देखने के लिए प्रेरित करना।

उनसे लाइक बढवाना भी शामिल है। स्मार्ट फोन भी हर समर्थक के पास होना जरूरी है तभी वह पार्टी के पल पल बदल रहे स्टैंड से वाकिफ हो सकेगा। मतदाता के मोबाइल पर किसी विशेष दल या प्रत्याशी विशेष का अत्यधिक प्रचार खीझ पैदा कर सकता है। गुस्से में वह पार्टी या प्रत्याशी के खिलाफ भी जा सकता है। यह मुद्दा भी एक बडी चुनौती बन सकता है। यदि वर्चुअल रैलियों के माध्यम से चुनाव प्रचार होता है तो इस बार के चुनावी मैनेजमेंट की पूरी कमान युवाओं के कंधे पर होगी। क्योंकि वही युवा आईटी पेशेवर हैं एवं तकनीक के जानकार हैं। चुनाव सुधार की बातें तो हर चुनाव में होती आई हैं। लेकिन यदि चुनाव प्रचार का वर्चुअल माध्यम कारगर रहा तो भविष्य के चुनावों का अंदाज बदलना तय है। और निश्चित तौर पर इसका श्रेय कोविड और उसके नए वैरिएंट ओमीक्रोन को मिलना चाहिए।

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