इस धरती का कवि केदार नाथ अग्रवाल

May 23, 2020 - 22:05
May 25, 2020 - 17:29
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इस धरती का कवि केदार नाथ अग्रवाल

@ उमाशंकर सिंह परमार

कविता अपने जनपद के भूगोल और इतिहास का आईना कैसे बनती है यह केदारनाथ अग्रवाल की कविता में परखा जा सकता है। बाँदा की जनसंस्कृति, जनपरम्पराएं, जनजीवन, आमजन की पीड़ाएं, व्यथाएँ, त्रासदियाँ, व लोकरंग से रंगी-पुती मान्यताएं, गीत-प्रगीत सब कुछ केदार की कविता का वाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्व गढ़ते हैं। केन, टुनटुनिया पहाड़, छोटी बाजार, गड़रा नाला, चित्रकूट, कचेहरी और कचेहरी की झंझटें केदार की कविता का उपादान हैं तो बाँदा के तत्कालीन नव स्वतन्त्र सामन्ती मूल्यों मे जकड़े मजदूर और किसानों के अतिरिक्त सामाजिक संरचना में सबसे निचले पायदान पर उपस्थित अस्मिताओं के पक्ष में गहन संवेदना उनकी कविता की सक्रिय वैचारिकता है, पक्षधरता है। एक अप्रैल 1911 में सामान्य मध्यमवर्गीय वैश्य परिवार में जन्मा यह कवि 22 जून वर्ष 2000 तक लगातार लिखता रहा। केदार को साहित्य अकादमी सम्मान मिला लेकिन इससे बड़ा सम्मान है कि वो हिन्दी साहित्य की जातीय परम्परा में लोकधर्मिता के आदर्श और सिरमौर कवि हैं। केदार आधुनिक युग की नवचेतना के कवि हैं। उन्होंने एक तरफ बुर्जुवा द्वारा दमित शोषित जनता के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त की तो दूसरी ओर सामूहिक संगठन पर जोर देते हुए पूंजीवादी वर्चस्ववाद को तोड़ने की पुरजोर वैचारिक प्रस्तावना रखी। उनकी कविता के मुख्य केन्द्र गाँव थे। गाँव के सौन्दर्य में भी विद्रोह, अवचेतन में भी चेतन, श्रम में संघर्ष व जीवन में संकट की पहचान स्थापित करने में कोई गलती नहीं की इसलिए वो प्रतिबद्धता व पक्षधरता के मामले में आज भी सामयिक हैं। जनपद बाँदा के कमासिन गाँव में जन्मे केदार पेशे से वकील थे। उनकी गिनती बाँदा के ईमानदार वकीलों में होती थी। बाँदा की जमीनी गन्ध और प्रकृति उनकी कविता में अत्यन्त सान्द्र रूप में उपस्थित है। बाँदा और वहाँ की प्रकृति से कवि का यह विलयन बहुत गहरा है और इतना गहरा कि बाँदा और केदार के व्यक्तित्व में विभेद कर पाना कठिन है। केन तो जैसे केदार की काव्यात्मक प्रेरणा थी, एक छोटी सी नदी भी कैसे इतिहास में दर्ज होती है, यह केदार की कविता मंे बखूबी देखा जा सकता है...

आज नदी बिल्कुल उदास थी
सोई थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र पडा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पांव घर वापस आया

इस कविता में नदी केन है। केन का वैयक्तिकरण कवि के अभ्यान्तरिक संवेदना को मनुष्यता की सीमाओं तक ले जाता है। केन के किनारे केदारबाबू अक्सर घूमने जाते थे। नदी की उदासी और कवि का दबे पांव वापस आना समूची सृष्टि का विलाप बन जाता है। कविता को प्रकृति की जैसी मानवेतर संवेदनाओं से जोड़कर केदार ने लोकधर्मिता का विस्तार किया है। जो लोग लोकधर्मिता को थोथी नारेबाजी से जोड़कर देखते हैं, उन्हंे इस कविता को पढ़ना चाहिए। जिसकी सशक्त भाषा व संवेदनशील बिम्ब लोक की परिपक्व समझ और वेदना को रूपायित कर रही है। केदारनाथ अग्रवाल की आस्था जन के लिए थी, वो लोकजीवन को विभिन्न सन्दर्भों में परखते हैं। विचारधारा किसी भी कवि के लिए जरूरी है पर विचारधारा सौन्दर्य नहीं तय कर सकती। सौन्दर्य के लिए बिम्बविधायनी प्रतिभा व भाषा की सही बुनावट व मौलिकता बेहद आवश्यक है। केदारनाथ अग्रवाल माक्र्सवादी थे, यह किसी से छिपा नहीं है। बुन्देलखण्ड की प्रकृति और भाषा उनकी बिम्बविधायिनी कला का प्राणतत्व है, यह भी जगजाहिर है। उनकी विचारधारा उनके बिम्बों मे झलक जाती है। मजदूर और किसानों के पक्षधर जनकवि केदार के प्रकृति से गढ़े गए युद्धक बिम्ब अद्वितीय हैं। उनकी एक कविता है...

एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना
बांधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सज कर खड़ा है

चने का पौधा छोटा होता है। चना रबी की फसल में पैदा होता है और जनपद बाँदा का प्रमुख उत्पाद है। लगभग हर खेत में हर किसान चने की खेती जरूर करता है, यहां तक कि गेहूं से अधिक चना बोया जाता है। लोकधर्मी कवि अपनी जमीन की इस खासियत को कैसे उपेक्षित कर सकता है। केदार ने चने के पौधे पर मुरैठा बांधकर खड़े होने का बिम्ब सृजित किया है। यह बिम्ब दोहरे कार्य कर रहा है, एक ओर तो बुन्देली पहनावे मुरैठा की सांकेतिक पहचान बता रहा है और दूसरी ओर चने जैसे अदने से पौधे को भी लड़ाई के लिए प्रस्तुत बता रहा है।

प्रकृति का यही लोकधर्मी बिम्बाविधान केदार को पन्त वगैरह की परम्परा से पृथक कर देता है। यदि केदार भी चाहते तो रोमान्टिक भावुकता के रौ मंे बहकर खूबसूरती का पिष्टपेषण करने लगते, पर उनकी प्रतिबद्धता विचारधारा के प्रति थी और पक्षधरता हजारों दलित शोषितों के प्रति भी। जब जन व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर विद्यमान हैं। त्रासद परिस्थितियों, जीवन को क्षण-क्षण जी रहा है ऐसे समय में भावुकता किसी काम की नहीं है, यही कारण है कि उनकी कविता में बुन्देली प्रकृति और लोक के संघर्षपूर्ण बिम्ब मिलते हंै। उनकी एक कविता है ‘एका का बल’। इस कविता में जनशक्ति और जन आंदोलनों का यथार्थवादी स्वरूप और उसमें गुंथी उनकी वैचारिक संरचना को परखा जा सकता है।

डंका बजा गाँव के भीतर
सब चमार हो गए इकठ्ठा
एक बोला उठा दहाड़कर
हम पचास हैं
मगर हाथ सौ फौलादी

बाँदा में धरती और धन को बांटने के लिए भूमिहीनों द्वारा जमींदारों के विरुद्ध बड़ा आन्दोलन हुआ था, यह कविता उसी समय की है। जन शक्ति में प्रबल आस्था रखने वाला कवि जब अपनी जमीन में उतरता है तो समूची प्रकृति उसे जूझती दिखाई देती है। केदार की जन में प्रबल आस्था है वह बार-बार जन आन्दोलन और अस्मिता की चर्चा करते हैं। परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों, जन के अस्तित्व को नहीं मिटा सकतीं।

वह जन मारे नही मरेगा
जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है
तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नही मरेगा, नहीं मरेगा

जन की अस्मिता व संघर्षपूर्ण चेतना पर कवि का अटूट विश्वास उसे क्रान्तिचेता कवि बना देता है। वह लोक की जमीन में उतरते ही विद्यमान परिवेश में क्रान्ति की वर्गीय अवस्थिति खोज लेते हैं। ‘करवी’ ज्वार के पौधे को कहते हैं, बुन्देलखण्ड के गाँवों में जानवरों के चारे के रूप में किसान करवी काटकर रखते हैं। करवी का काटना देखते हुए कवि जीवन के लिए हिंसा की जोरदार वकालत करता है। कहने का आशय है कि लोक जीवन की  जरूरतों में भी केदार की पक्षधरता स्पष्ट हो जाती है। वो चाहे गीत लिखें या लोकगीत, क्रान्तिचेतना कथ्य का प्रमुख तर्क बनकर उपस्थित हो जाता है। वैसे केदार की कविता में अनावश्यक कलावाद कहीं नहीं है। 

केदारनाथ अग्रवाल की कविता मानव जीवन की यथार्थ व कठोर जीवनानुभवों की कविता है। केदार इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. पास करके हिन्दू हाॅस्टल में नरेन्द्र शर्मा और शमशेर बहादुर सिंह के साथ रहे। शमशेर बहादुर सिंह और रामविलाश शर्मा के साथ उनकी मित्रता सबको पता है। अभी पिछले साल ही केदार बाबू और शर्मा जी के बीच का संवाद व पत्र व्यवहार साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है। शहर और गाँव दोनों में रहने का और करीब से देखने का उन्हंे अनुभव था। इस अनुभविक विविधता के कारण उनकी कविता भी वैविध्यपूर्ण हो गयी है। गुलमेंहदी, जो शिलाएं तोड़ते हैं, कहे केदार खरी-खरी, खुली आँखे खुली डैने, कुहकी कोयल खड़े पेड की देह, मार प्यार की थापें, फूल नहीं रंग बोलते हैं, आग का आईना, पंख और पतवार, अपूर्वा, नींद के बादल, आत्म गंध, युग की गंगा, बोले बोल अबोल आदि उनकी वैविध्यता से आपूरित काव्य कृतियां रहीं। केवल प्रकृति और जनपक्षीता के सन्दर्भ में ही केदार आज के लिए सामयिक नहीं हैं, उनकी कविता आज के प्रचलित विमर्शों के खांचे मंे भी श्रेष्ठतर ही ठहरती है। दलित की उपस्थिति भी उनकी कविता में है, भले ही वो जातीय सवाल न खड़े करे, पर उनकी वर्गीय अवस्थितियों व सामाजिक संरचनाओं का बखूबी परिचय दे देती है। 

केदारनाथ अग्रवाल की कविता आज के सन्दर्भ में बेहतरीन स्त्री कविता है, कहीं भी देह की गन्ध नहीं है, कहीं भी मानसिक कुंठाएं नहीं हैं। अगर है तो वर्चस्ववाद व सामन्तवाद की जकड़न मंे कैद एक छोटा सा अस्तित्व, जिसकी मुक्ति की प्रत्याशा लगभग क्षीण है। एक लोकधर्मी कवि वर्गीय चेतना की बिनाई से ही सब कुछ देखता है, इसलिए वो कभी भी काल्पनिक और पराभौतिक नहीं होता। 1946 की लिखी रनियां कविता देखिए, जो एक दलित स्त्री पात्र है, वह दोहरे संघर्षों में जी रही है। एक ओर फरा-फूला सामन्तवाद है तो दूसरी ओर पुरुष वर्चस्ववाद। यह रेखांकन जमीनी है, आज भी बुन्देलखण्डी गाँवों में ऐसी रनियां देखी जा सकती हैं।

रनियां के कर में हँसिया है
घास काटने में कुशला है
मेरे हाँथों में रुपिया है
मैं सुख सौदागर छलिया हूँ
रनियां कहती है जग बदले
जल्दी बदले जल्दी बदले
मैं कहता हूँ कभी न बदले
कभी न बदले कभी न बदले

यहाँ वर्गीय द्वन्द का खाका खींचा गया है। रनियां केवल एक स्त्री ही नहीं, सामन्तवादी वर्चस्ववाद मंे घुट रही पूरा समुदाय है। यह स्थिति ही यथार्थ है, अब यदि रनियां को देह से मुक्ति मिल भी जाए तो क्या यह वर्चस्ववादी संकट दूर हो जाएगा? स्त्री अपनी सामाजिक अवस्थिति को पुनः प्राप्त कर लेगी? सम्भवतः ऐसा नहीं। इसलिए केदार आज के सन्दर्भ में मीलों आगे हैं।

जनवादी लोकधर्मी कविता के विरोधी हर युग मंे रहे हैं। हर एक कवि अपने समय में उपेक्षा का शिकार हुआ है। वो तो केदार की लोकचेतना थी, जिनके गीत आज भी गुनगुनाए जाते हैं और जब तक धरती में शोषण और अन्याय है, तब तक गीत गाए जाते रहेंगे। उन्हांेने अपने सम्बन्ध में लिखा है...

कुछ ना समझ लोग नकारने पर तुले हैं
कोई कुछ कहे करे मुझे ढकेलकर नहीं गिरा सकता
कविता मुझे सिर पर चढ़ाए-चढ़ाए उठाए-उठाए लोकचेतना में गई है
मैं खूब खिलखिला रहा हूँ
नकारने वालों को ठेंगा दिखा रहा हूँ

(जनवादी लेखक संघ उ.प्र. के उपसचिव उमाशंकर सिंह परमार आलोचक विधा के लेखक हैं। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख व कविताएं प्रकाशित हो चुके हैं।)

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