बाँदा की साहित्य और संस्कृति – अनभिज्ञ जन प्रतिनिधि बेखबर सत्ता
@ उमाशंकर सिंह परमार
तुलसीदास से लेकर पदमाकर केदारनाथ अग्रवाल, कृष्णमुरारी पहरिया तक की जन्मभूमि बाँदा हिन्दी साहित्य एवं साहित्यिक गतिविधियों के लिए समूचे देश में जाना जाता रहा है। देश ही नही विश्व में कहीं भी किसी विश्वविद्यालय में जहाँ हिन्दी पढाई जाती है, हिन्दी साहित्य के पाठक लेखक और हिन्दी से जुड़े लोग बाँदा की साहित्यिक आँच से परिचित हैं। यह आँच आज से नही है, बाँदा को साहित्य तीर्थ बनाने की सबसे बड़ी कोशिश बाबू केदारनाथ अग्रवाल ने की थी। निराला, नागार्जुन, रामविलाश शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे हजारों लेखकों का बाँदा आना हुआ और बाँदा की केन व केन के किनारे फल-फूल रही बाँदा की संस्कृति और सभ्यता को अपनी रचनाओं में उकेरा। आज समकालीन दौर स्वतन्त्र लेखक समूह जनवादी लेखक मंच बाँदा मे यह काम कर रहा है। यह मंच कोई संगठन नही है, किसी किस्म का एनजीओ नही है, बल्कि साहित्य के लेखकों और पाठको और साहित्य के लिए कुछ कर गुजरने वाले जूनूनी लेखकों का एक आपसी ग्रुप है जो आपस मे चन्दा करके बाहर से लेखकों को बुलाते हैं आयोजन करते हैं। इस मंच ने वर्तमान में बाँदा की पहचान को बनाए रखा है। समकालीन हिन्दी से जुडे देश के सभी लेखक इस मंच की गतिविधियों से परिचित है। लगातार आयोजन होना और इन आयोजनों के लिए हाल से लेकर हर चीज का किराया भुगतान करना फिर भी अनवरत जारी रखना इस ग्रुप के जुनून का साक्ष्य है। देश-विदेश के बड़े लेखक यहाँ आकर बाँदा की सांस्कृतिक विरासत से परिचित होते हैं।
सवाल यह है कि बाँदा में चार-चार विधायक, सांसद हैं यहाँ माफिया राज कायम है। अवैध खनन प्रशासन की शह पर होता है। करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे है, सरकार को अरबों का राजस्व प्राप्त होता है। सांसद विधायकों की निधियाँ होती हैँ। संस्कृति का मन्त्रालय भी काम करता है। जिले का प्रशासन भी है। क्या संस्कृति और साहित्य के लिए जिला स्तर पर आधारभूत साधनों को उपलब्ध कराना इनका उत्तरदायित्व नही है? मुझे यह कहने में कोई संकोच नही कि विधायक और सांसद यहाँ के सबके सब साहित्य और संस्कृति से अपरिचित हैं। साहित्य और संस्कृति का इनको ज्ञान होता तो आजादी के बाद से अब तक साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनों के लिए एक सार्वजनिक निःशुल्क हाल तथा बाहर से आ रहे लेखकों संस्कृति कर्मियों के लिए समुचित ठहरने की व्यवस्था कब की हो गयी होती। जनपद के लेखकों की किताबों का संरक्षण व उनकी सुरक्षा तथा अन्य सांस्कृतिक साहित्य व अवशेषों के लिए एक पुस्तकालय और संग्रहालय की व्यवस्था भी हो गयी होती। इससे पठन और पाठन का माहौल बनता। बाँदा के साहित्य पर शोध करने वाले लोगों को एक जगह पर ही सारी सामग्री मिल जाती। जनपद के सारे लेखक आपस मे जुडे रहते और सांस्कृतिक गतिविधियों को अन्जाम देते रहते। यह बहुत छोटा काम है, कोई भी जनप्रतिनिधि या डीएम वगैरा कर सकते हैं, लेकिन नही हुआ। आज भी सांस्कृतिक मोर्चे पर सारी गतिविधियाँ और काम तथा आयोजन निजी जुनूनी लोग करते हैं, अपने धन से करते हैं न तो प्रशासन का सहयोग होता है और न जन प्रतिनिधियों का कोई अहसान रहता है। यहाँ विधायक और सांसद निधियों का बटवारा देखा जाए, अधिकांश निधि प्राईवेट स्कूलों को दी जाती है आखिर क्यों? शिक्षा को मजबूत करना है तो सरकारी स्कूलों को दें। यही कारण है शोषण और लूट की वैधानिक संस्थाएँ प्राईवेट स्कूल आज लाभ का साधन बन गये हैँ चारों तरफ गाजर और मूली की तरह उगे हैं। यह उगना शिक्षा और संस्कृति के नही बल्कि इसी तरह की कमाई के लिए है। इसका सबसे बडा साक्ष्य है किसी भी प्राईवेट स्कूल और कालेज में बाँदा की संस्कृति व साहित्य से जुडी लाईब्रेरी नही है। पुस्तकालय हैं, लेकिन कोर्स की गाईड और कुन्जियों के अतिरिक्त वहा कोई भी जरूरी सामग्री नही मिलेगी।
बाँदा मे नागरी प्रचारिणी का पुस्तकालय भी है जो व्यक्तिगत जुनून से ही चल रहा है। मगर कब तक? इसकी भी दुर्दशा कम नही है, आखिरकार एक आदमी अपनी जेब से कितना पैसा लगा सकता है। यहाँ के कर्मचारियों का वेतन सुनकर ही कोफ्त होती है कि धन्य है यहाँ के जन प्रतिनिधि और धन्य है प्रशासन जो इतनी जरूरी संस्था और जरूरी पुस्तकालय की भी रक्षा नही कर सकते हैं। यह सांस्कृतिक पक्ष और साहित्यिक पक्ष , पठन-पाठन के माहौल बनाने के सम्बन्ध में कोई जनप्रतिनिधि कभी भी अपने ऊपर श्रेय नही ले सकता, न कोई सरकार ले सकती है। जो भी यहाँ बचा है यहाँ की जनता के कारण बचा है।
इतना ही नही, यहाँ के जनप्रतिनिधि अनभिज्ञ ही नही है, उन्हे अपनी जमीन और अपने इतिहास का भी बोध नही है। कालिंजर का किला अब पुरातत्व विभाग देख रहा है केवल कमाई के लिए मगर सरंक्षण और गतिविधियों को अन्जाम नही देता। चाहता आज तक एक बडा पर्यटन स्थल और शैक्षणिक स्थल बन जाता। यही तुलसी की जन्म भूमि राजापुर का हाल है, यहाँ संरक्षण और सुरक्षा का काम मन्दिर और तुलसी के भक्त देख रहे हैं, एक भी सरकारी निवेश नही है, न तुलसी के नाम पर शोध संस्था है न सेमिनार न किसी किस्म का आयोजन है। यहाँ तक कि तुलसी का साहित्य भी यहाँ किसी दुकान मे उपलब्ध नही है। रीति कवि पदमाकर का आवास पदमाकर चौराहे पर है, इस भवन की इस्लामी शैली आकर्षित करती है, मगर संरक्षण व उनके अवशेषों की सुरक्षा नही हुई, जिसके कारण उनकी एक भी किताब यहाँ नही है और न ही उनके अवशेष है। भवन शेष है वह भी कब तक चलता है ठिकाना नही है। सबसे बडा बुरा हाल तो केदारनाथ अग्रवाल की पहचान के साथ हुआ। केदार के मकान पर जहाँ निरन्तर गोष्ठी होती थी। उनकी हजारों किताबें लेखकों के पत्र व लेखकों के चित्र रखे थे जो साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र था, वह भी तोडकर जमींदोज कर दिया गया। सबकी नाक के सामने हुआ। हमने तत्कालीन डीएम को लिखित दिया था। सारे विधायकों से मिले थे, कोई सामने नही आया और आज केदार के नाम पर बाँदा में कुछ नही बचा। एक डीएम बीच मे आए थे, उन्होने रेलवे स्टेशन पर उनका परिचय पट्टिका लगवा दी है, बस यही बचा है।
भूरागढ का किला, आशिक की मजार जिसके पीछे सैकडों लोक कथाएँ हैं। जहाँ पचासों क्रान्तिकारियों को जिन्दा मारा गया। जहाँ आरा के राजा कुवंर सिंह ने आकर 1857 की क्रान्ति का विगुल फूँका था, वह भूरागढ का किला आज कूडे कचरे बदबू सीलन भरा हुआ एक गन्दी जगह के रुप मे है। चित्रकूट मे रहीम की मजार है। जिस पर किसी ने चारदीवारी बनाकर अपने कब्जे मे ले लिया है। रहीम अपनी बेटी के साथ चित्रकूट मे रहे, राम भक्त थे। तुलसी के मित्र थे, दोंनो का आवास आमने-सामने था। तुलसी आवास आज मन्दिर बन चुका है तो रहीम की मजार मे आदमी और कुत्ते पेशाब कर रहे ह़ै। चारों तरफ भीषण गन्दगी है। आस पास किसी को पता ही नही यह महान कवि रहीम की मजार है।
अपने इतिहास और साहित्य और संस्कृति के प्रति बाँदा के जनप्रतिनियों की लापरवाही और अज्ञानता यहाँ के बुद्धिजीवी होने को अभिशप्त ह़ै। इनकी इस लापरवाही और अरुचि अकर्मण्यता को हम जैसे लोग अपनी परम्परा और पहचान के साथ अपराध मानते हैँ।