बन गया राजू जेंटलमैन
@अवधेश निगम 'राजू'
चेहरा छिपा कर, सिर पर अनुत्तर सवालों का भार लेकर
अपने घर की ओर लौटे है, शहर को शहर बनाने बाले।।
सशक्त मजदूर से, बेबस मजबूर बन कर
कर्मभूमि से जन्मभूमि लौटा हूँ, अपनेआप को ले कर।।
कल तक कहता था सूरत, तुमसे है मेरी रौनक
सूरतेहाल बदला तो सूरत में दाग ही दाग दिखे।।
चिमनी से उठता धुँआ, मेरी तरक्की बोलता था
धुँआ खामोश हुआ, तो मेरी सांसों पर बन पड़ी।।
रातों में भी दिन को मात देते थे, जो शहर
बदलते वक्त में भूख के सन्नाटे में तब्दील हो गए ।।
गांव से शहर का पलायन बेहतर जिंदगी का सवाल था।
कई सवाल लिए, एकमुश्त पलायन शहर से गांव की ओर ।।
जिस गांव को अरसे से एक चिट्ठी न लिखी।
आज उस मिट्ठी को जिंदगी समझ कर लौटा हूँ ।।
बच्चों को बिन पंखा सोने की आदत नही मां गांव कैसे आये ।
उन बच्चों को लेकर आया हूं मां , भूखे पेट नींद नही आती ।।
महामारी ऐसी मार मारी, हाथ से काम छीना बारी बारी ।
आज पर संकट, घरी की घरी रह गयी कल की तैयारी ।।
लौट तो आया है “राजू”, पैदल , जुगाड़ पर सवार।
रोटी को गया था, यहां रोटी का कैसे होगा जुगाड़।।
गांव से शहर गए थे, जिंदगी सँवारने।
आज लौट पड़े है घर को, जिंदगी बचाने।।
खेत आबाद होंगे, फैक्टरी सूनी होगी।
भविष्य अभी प्रश्न है, गम या खुशी क्या दूनी होगी।।
कंधे पर एक बैग लेकर गए थे, एक ही लेकर लौटे।
जो कमाया था , वह इतना है, जिंदगी चलती रहे।।
गांव को गंवार कह कर, शहर को तरक्की की राह कह कर,
निकला था “राजू” जेंटलमेंट बनने, लौटा मुसीबतें सह
कर।।