चुनावी विश्लेषण : आखिर चुनावी सर्वे सटीक क्यों नहीं हो पाते?

देश में पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने से पहले टीवी चैनल्स और सर्वे एजेन्सीज के जो निष्कर्ष आये...

चुनावी विश्लेषण : आखिर चुनावी सर्वे सटीक क्यों नहीं हो पाते?

सचिन चतुर्वेदी...

देश में पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने से पहले टीवी चैनल्स और सर्वे एजेन्सीज के जो निष्कर्ष आये, उससे स्थिति काफी अस्पष्ट थी। नहीं लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी तीन राज्यों में सरकार बनाने जा रही है। तेलंगाना ही एक ऐसा राज्य रहा, जहां भाजपा लड़ाई में दूर दूर तक नहीं है। और वहां पर कांग्रेस ने बाजी पलट कर रख दी है। कांग्रेस ने वहां उस पार्टी को हराया है, जो वहां सबसे ज्यादा मजबूत कही जाती है। मध्य प्रदेश को छोड़ दिया जाये तो बाकी 2 राज्यों में भाजपा या तो क्लियर मैन्डेट से नीचे नजर आ रही थी या फिर 50-50 का मामला दिखाई दे रहा था। पर आज जब चुनावी रूझान और परिणाम का दिन आया तो जैसे जैसे सूरज आसमान में ऊंचाईयां प्राप्त कर रहा था, वैसे वैसे भाजपा का सूरज भी चढ़ता चला जा रहा था।

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शुरूआत में मध्य प्रदेश तो एकतरफा जीत की ओर संकेत कर रहा था लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में स्थिति स्पष्ट नहीं थी। लेकिन अब जब काफी हद तक परिणामों की घोषणा हो चुकी है तो ये स्पष्ट है कि भाजपा को पीछे समझने की जो भूल कर रहे थे, उन्हें एक बार फिर से होमवर्क जरूर करना चाहिए कि आखिर उनसे बार बार चूक कहां हो रही है।

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आईये हम बताते हैं कि चूक क्या है? अगर हिन्दी पट्टी की बात की जाये तो दरअसल आमजनता, सपोर्टर और कार्यकर्ता तीन ऐसे वर्ग हैं, जिन्हें गहराई से समझने की आवश्यकता है। सर्वे में जब किसी पार्टी के कार्यकर्ता को आम जनता समझने की भूल होती है तो रिजल्ट भी गलत आयेगा। अगर स्पष्ट रूप से कहें तो आमजनमानस उसे कहेंगे, जो स्वयं या उसका परिवार किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ाव न रखता हो। और सपोर्टर की बात करें तो दिल में यदि किसी राजनीतिक दल की ओर मामूली झुकाव से कुछ ज्यादा झुकाव हो तो वो सपोर्टर। और कार्यकर्ता के बारे में बताने की आवश्यकता ही नहीं है, वो सब जानते हैं।

सबने देखा होगा कि जब बीच चौराहे पर डिबेट होती है, या लोगों से राय मशविरा होता है तो स्पष्ट रूप से दिखता है कि आपस में कार्यकर्ताओं एवं सपोर्टर में ही भिड़न्त होती है। आमजनता से तो कोई मतलब ही नहीं होता। और न ही वहां कोई आमजनमानस मौजूद होता है। चूंकि यहीं ये समझने में गलती होती है। हिंदी राज्यों में मोदी मैजिक सर चढ़कर बोल रहा है और ये साबित तब होता है चुनाव परिणाम भाजपा के पक्ष में आता है।

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अगर सीधे शब्दों में कहें तो आज जो माहौल भाजपा के विरोध में थोड़ा बहुत भी दिखाई दे रहा है, वो विरोधियों का षड्यंत्र समझ आता है। मुसलमान, जो सामान्यतः भाजपा का मुख्य विरोधी दिखाई पड़ता है, उसे साथ लेकर विरोधी कार्यकर्ता और सपोर्टर जब गली नुक्कड़ों की चौपालों में  भाजपा का तगड़ा विरोध करते हैं, तो एकबारगी लगने लगता है कि भाजपा कमजोर हो रही है, पर ऐसा होता नहीं है। क्योंकि तब चिल्लपों के बीच वो आमजन्मानस बिलकुल शांत होता है, जो चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाता है। और उसे नजरंदाज करके जब सर्वे की आधारशिला रखी जाती है, तब ऐसे ही अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिलते हैं।

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दूसरी एक बात और ध्यान देने योग्य है, कि भाजपा की स्ट्रेटजी ने जातीय गणित को पलट दिया है। दरअसल  एक जाति जिसे हर कोई नज़रंदाज़ करता है और सब जातिगत आंकड़ों के आधार पर बाते करते हैं तथा भूल जाते हैं कि एक जाति ऐसी भी एकजुट हो गई है, जो सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं का भरपूर लाभ ले रहे हैं, उन्हें हम लाभार्थी जाति का नाम दें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। और इस लाभार्थी जाति में हर जाति के लोग शामिल हैं, जो जातिगत आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने वालों के अरमानों पर सिरे से पानी फेर देते हैं।

तभी हम कहते हैं कि मोदी के आने के बाद अब चुनावी गणित पूरी तरह से बदल चुकी है।

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