सब किसी अदृश्य गम मे डूबे हुए से लगते हैं 

सब किसी अदृश्य गम मे डूबे हुए से लगते हैं 
प्रतीकात्मक फ़ोटो

आजकल जब भी काम से बाहर निकलता हूँ, सड़क पर जितने रेहड़ी वाले हों या जो भी निम्न आय वर्ग से आने वाले लोग दिखते हैं, अधिकांश के चेहरे मलीन पड़ चुके हैं। सब किसी अदृश्य ग़म में डूबे हुए से दिखते हैं।
उसी में कुछ ज़िंदादिल चेहरे अपने ग़म को छुपाते मुस्कुराते भी दिख जाते हैं। एक जो चहलपहल होती थी कोरोना-पूर्व दुनिया में, वह सच में कहीं खो-सी गयी है। सब अनजाने भय से परेशान से हैं।
तमाम रिक्शेवाले कतार में बैठे दिखते हैं। ज्योहीं कोई पैदल यात्री आता दिखता है, तमाम की आँखें उधर आशा से देखने लगती हैं। ज्योहीं वह पैदल यात्री आगे बढ़ता जाता है, इन सबकी आँखों में छाए आशा के बादल भी फटने लगते हैं।
इसी बीच थोड़ी दूर और चलने पर एक छोटा-सा बच्चा 5₹ वाले कलम का जत्था अपने हाथों में लिए- भैया ले लो न भैया, भैया एक कलम तो कमसेकम ले लो न भैया..!
अपन सोच रहे होते हैं कि ऐसे जो 75 कलमों का जत्था पहले से इक्कट्ठा हो रखा है बेकार में, उनका क्या करूँगा फिर..पर फिर वही आदत से मजबूर कि कमसेकम कुछ तो कर रहा बेचारा, चोरी तो नहीं कर रहा..ला भई चार कलम दे दे यार..
बीस ₹ देख कर ही उसकी आँखों में जो चमक आ जाती है कि क्या कहने..चाहता तो उसे यूँही दे सकता था। पर लगता है कि फिर इसे अभी से भीख मांगने की आदत लग जायेगी। स्वाभिमानी है, तो स्वाभिमान बरकरार ही सही।
यह भी भूल जाता हूँ तब उसकी मजबूरी के आगे कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन हो रहा। क्या फायदा उस संविधान का जो अनुच्छेद 21और 21(क) का ही ढंग से पालन नहीं करवा पा रहा!
(प्रियांक की फेसबुक वाल से ) 

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