स्मृति चिह्नों से जीवन्त होती रामकथा

स्मृति चिह्नों से जीवन्त होती रामकथा

ऋग्वेद के अनुसार राजा कसु चित्रकूट का पहला शासक था। शुंग काल में यहां का शासन पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र द्वारा संचालित होता था। 130 ईसवी में मघ शासकों ने इस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। आर्कलाॅजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जिल्द 10 पृष्ठ 11 में जनरल कनिंघम ने इलाहाबाद कौशांबी की करछना तहसील के गढ़वा ग्राम में पाए गए एक महत्वपूर्ण प्रस्तर लेख का उल्लेख किया है। कोलकाता के इंडियन म्यूजियम विशाल शिलालेख का कुछ भाग ही सुरक्षित है। जिसमें लिखा है कि वर्ष 148 में माघ मास के 21वें दिन भगवान चित्रकूटस्वामिन के चरणों में भगवान विष्णु की प्रतिमा संस्थापना की गई और मठ के संचालित रहने के लिए भूमि दान किया गया। इस शिलालेख में कामदगिरि नाम का उल्लेख नहीं है अपितु पर्वत को चित्रकूट नाम से ही अभिहित किया गया है। वस्तुतः जिस पर्वत की परिक्रमा आज कामदगिरि के रूप में की जाती है उसका मूल नाम चित्रकूट ही है।

वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड का एक मधुर प्रसंग है। लंका दहन के पश्चात् हनुमान माता सीता से मिलते हैं और कहते हैं कि अब मैं वापस प्रभु राम के पास जाता हूं। जैसे राम ने अपना अभिज्ञान दिया था वैसे ही आप मुझे कोई ऐसी बात बताए जो केवल आप दोनों जानते हों, जिसको सुनकर प्रभु राम को विश्वास हो जाए कि हनुमान निश्चित ही माता सीता से मिल आए हैं। सीताजी उनसे दो प्रसंगों की चर्चा करती हैं और वे दोनों ही प्रसंग चित्रकूट के हैं। एक तो जयंत वाला प्रसंग है, और दूसरा प्रसंग है चित्रकूट के उत्तर पूर्व के आश्रमों का। सीता जी कहती हैं -

शैलस्य चित्रकूटस्य पादे पूर्वोत्तरे पदे।

तापसाश्रमवासिन्याः प्राज्यमूलफलोदके।

तस्मिन् सिद्धाश्रिते देशे मन्दाकिन्यविदूरतः।।

तस्योपवनखण्डेषु नानापुष्प सुगन्धिषु।

विहृत्य सलिले वितन्नो ममांके समुपाविशः।।

चित्रकूट पर्वत के उत्तर-पूर्व वाले भाग पर जो मंदाकिनी नदी के समीप है तथा जहां फल मूल और जल की अधिकता है, उस सिद्धसेवित प्रदेश में तापस आश्रम के भीतर जब मैं निवास करती थी, उन्हीं दिनों नाना प्रकार के फूलों की सुगंध से वासित उस आश्रम के उपवनों में जलविहार करके आप भीगे हुए आए और मेरी गोद में बैठ गए। यह जो प्रसंग है सिद्धाश्रम का है। इसे आज बांकेसिद्ध के नाम से जाना जाता है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित चित्रकूट में देखने लायक दो ही स्थान अब बचे हैं। पहला सिद्धाश्रम और दूसरा सुतीक्ष्ण आश्रम के आगे अमरावती। सिद्धाश्रम अनसूया के भाई कपिल मुनि का आश्रम है,जहां रहकर उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रणयन किया। यहां का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसमें 30000 साल पुराने रामकथा शैलचित्र आज भी सुरक्षित हैं। धनुर्धारी पुरुषों, हिरणों, नृत्यमुद्रा के अतिरिक्त अश्वारूढ़ धनुर्धारी महिला का चित्र यहां पर गुफा के अंदर उकेरा गया है। वैसे यहां के अधिकांश शैलचित्र साधुओं द्वारा पोते गए चूने और चूल्हे के धुए से नष्ट हो चुके हैं। जो शेष बचे हैं उनकी सुरक्षा के लिए किसी भी सरकारी विभाग के पास कोई समय नहीं है।

 सिद्धाश्रम के पीछे से लेकर ऋषियन तक और दक्षिण में धारकुंडी तक लगभग 200 गुफाओं में रामकथा सम्बन्धी शैलचित्र विद्यमान है। इनकी आयु 18 हजार से 30 हजार साल पुरानी है। इन शैलचित्रों की काल गणना स्पष्ट करने से पूर्व चित्रकूट के इतिहास के बारे में कुछ तथ्य जान लिए जाएं,यह उचित है।

 राजा कसु इस क्षेत्र का पहला शासक था जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। शुंग काल में यहां का शासन पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र द्वारा संचालित होता था। 130 ईसवी में मघ शासकों ने इस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया आर्कालाजीकल सर्वे ऑफ इंडिया  जल्द 10 पृष्ठ 11 में जनरल कनिंघम ने इलाहाबाद कौशांबी की करछना तहसील के गढ़वा ग्राम में पाए गए एक महत्वपूर्ण प्रस्तर लेख का उल्लेख किया है जो आजकल इंडियन म्यूजियम कोलकाता में सुरक्षित है। इस विशाल शिलालेख का कुछ भाग ही सुरक्षित है जिसमें लिखा है कि वर्ष एक सौ अड़तालिस में माघ मास के 21वें दिन भगवान चित्रकूटस्वामिन के चरणों में भगवान विष्णु की प्रतिमा संस्थापना की गई और मठ के संचालित रहने के लिए भूमि दान किया गया। इस शिलालेख में कामदगिरि नाम का उल्लेख नहीं है अपितु पर्वत को चित्रकूट नाम से ही अभिहित किया गया है। वस्तुतः जिस पर्वत की परिक्रमा आज कामदगिरि के रूप में की जाती है उसका मूल नाम चित्रकूट ही है। 2000 वर्ष पूर्व चित्रकूट के महान धार्मिक महत्व को निर्विवाद प्रमाणित करने वाले इस शिलालेख के साथ संस्कृत के अनेक महा कवियों ने चित्रकूट को सिद्ध क्षेत्र के रूप में सम्मानित किया है। देवी भागवत में चित्रकूट की गणना 51 शक्तिपीठों में की गई है, जहां देवी सीता के नाम से पीठ स्थापित है । पांचवी शती के उत्तरार्ध में यहां बुधगुप्त का शासन हुआ जिसकी अधीनता में परिव्राजक और उच्चकल्प महाराजाओं ने सतना रीवा जिले के अधिकांश भूभाग पर राज किया। 484 ईसवी के एरण अभिलेख में बुधगुप्त की इस क्षेत्र में की हुई विजयों का वर्णन है। उस समय कालंजऱ से भरहुत तथा रसियन से लेकर शक्तिमती नगरी तक के संपूर्ण क्षेत्र को चित्रकूट मंडल कहा जाता था। परवर्ती काल में भी कालिंजर के शासकों तथा गहोरा के बघेल शासकों ने सगर्व चित्रकूटमंडलाधिपति की उपाधि धारण की।

सातवीं सदी के उत्तरार्ध में कलचुरी शासक वामराजदेव ने यहां अधिकार किया और उसके वंशज लक्ष्मणराज ने चित्रकूट के  गुहिल शासक हर्ष की सहायता की। महान कन्नड़ कवि पंप के अनुसार वामराजदेव ने चित्रकूट दुर्ग को जीत लिया जो चेेदि देश में स्थित था। कलचुरी शासन में चित्रकूट का वैभव चरमोत्कर्ष पर था। कलचुरी शासक कर्ण के बनारस तामपत्र एपिक इंडिया जिल्द दो पृष्ठ 306 श्लोक 7 तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्ण के करहद तामपत्र एपिक इंडिया जिल्द 4 पृष्ठ 284 श्लोक 38 में चित्रकूट को मंडल कहा गया है। नवीं शती के प्रथम चरण में चंदेल शक्ति के उदय के साथ ही कलचुरियों का पतन प्रारंभ हो गया। चंदेल काल में सत्ता केंद्र चित्रकूट से हटकर कालिंजर और महोबा की ओर उन्मुख हो गया, फलतः चित्रकूट बुंदेलो के समय तक इतिहास के केंद्र में नहीं रहा तथापि अकबर के समय तक रीवा के शासकों ने अपने को चित्रकूट नरेश कहना जारी रखा। सन 1683 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने चित्रकूट की यात्रा की और बालाजी मंदिर का निर्माण कराकर जारी ग्राम की जागीर मंदिर के नाम की।

सन 1688 में महाराज छत्रसाल ने मुगल सेनापति अब्दुल हमीद को चित्रकूट में परास्त कर इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। संत 1725 में छत्रसाल की रानी चंद्रकुमारी ने कामदगिरि परिक्रमा का निर्माण कराया। उनके ही वंशज महाराज सभासिंह और महाराज अमानसिंह तथा चरखारी नरेश महाराज मलखानसिंह ने चित्रकूट में अनेक मंदिर बनवाए। चित्रकूट किसी एक पर्वत का नाम नहीं है। आदिमानव की प्राचीनतम विकासस्थली के साथ यह मानव सभ्यता की आदिभूमि रही है। सैकड़ों किलोमीटर  परिधि में अनेक सहस्त्र वर्ष पूर्व के शैलचित्रों की विपुल उपलब्धि के कारण इस क्षेत्र को चित्रकूट कहते हैं। रसियन जिसे चित्रकूट का प्रवेश द्वार कहा जाता है और जहां का अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य पुराणप्रसिद्ध है, से लेकर अत्रिआश्रम पर्यंत भूमि चित्रकूट का हृदय देश है। पशुपतिनाथ की अलौकिक सौंदर्यशालिनी प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध तथा शकुंतला दुष्यंत के पुत्र भरत की जन्म स्थली मड़फा, अत्यंत रमणीक और मध्यकाल में राजवासिनि नाम से विख्यात रसिन, बाणासुर की धर्ममाता कोटरा के नाम से वरहाकोटरा का भव्य शिव मंदिर और विशाल दुर्ग के ध्वंसावशेष जिसके समीप हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं, सन 1873 में संपूर्ण विश्व के पुरा शास्त्रियों को चकित करने वाले पुरावशेषों का भव्य स्मारक भरहुत और समकालीन कला का दुर्लभ केंद्र भट्टनवारा, उच्चकल्प महाराजाओं का महाचतुष्पथ का विशाल नगर खोह ,यह सब मिलकर चित्रकूट की ऐतिह्य परंपरा का निर्माण करते हैं। चित्रकूट के गोपीपुर, बांकेसिद्ध, निही में पुरापाषाणकालीन अस्त्रों की उपलब्धता ने, विशेषकर ऐंचवारा में चर्ट और स्फटिक वर्ग के पत्थरों से बने अस्त्रों और लोढ़वारा के समीप खोजी गई उद्योगशाला ने चित्रकूट को पुराविशेषज्ञों की दृष्टि में महत्वपूर्ण बना दिया है।

ऐसे लगभग 200 स्थलों का सघन सर्वेक्षण मैंने किया है और अब इस प्रयास में हूं कि इस क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय विरासत घोषित किया जाए। काकबर्न ने मारकुंडी तथा सिल्वेराड ने सरहट में बिना पहिये की बैलगाड़ी के प्राचीनतम चित्र की खोज की। उसके पश्चात् डाॅ0 कृष्णदत्त बाजपेयी, विजय कुमार तथा अनेक अनाम अनजाने प्रयासों से अब तक 200 के कुछ अधिक शैलाश्रय प्रकाश में आ चुके हैं। रामकथाश्रित शैलचित्रों का अभिकथन अभी शेष है, ब्राह्मी लिपि में बाल्मीकि आश्रम तथा हनुमान धारा के पीछे अंकित कथन अद्यावधि अपाठ्य है ,हनुमान धारा के दक्षिण के प्रतीक चिन्हों का अर्थ अभी तक नहीं जाना जा सका है परंतु एक बात तय है कि चित्रकूट भगवान राम के यहां आने के पूर्व प्रख्यात था और उस प्रख्याति के कारण इन शैलचित्रों में खोजे जा सकते हैं। चित्रकूट में जिन स्थलों पर रामकथाश्रित शैलाश्रय अथवा गुफाएं हैं उनकी सूची निम्नवत् है। इन स्थलों पर प्रत्येक में न्यूनतम एक और अधिकतम 4 तक शैलचित्र अंकित गुफाएं हैं।

चित्रकूट के उत्तर में रिसियन के समीप

भूरादाई पहाड़ी, सुगरहा पथरी सीता पहाड़ी, बरियारी, भूपति सीताकुटी, कौआखोह,बिलारी पहाड़ी .चन्दना टाप, कर्का,दशरथ घाटी।

चित्रकूट के पूर्व में मानिकपुर के समीप- चूल्ही, बाँसाचूहा, दोद, खाभा, बेड़ीपाथर, रिछाटा, मयूर पहाड़ी, ढकेलवा पहाड़, कथौटा जगिनहाई, कुर्रा, भैंसाहठी, महुली,पन्ना पहाड़, बरूई पहाड़, डेलुआ, गढी परासन, चुनहा चैपटा, सिद्धनपहाडी, ककरेरी, कुसमौर, मटिहाई, चुलबुल, पहाड़ी, धारकुण्डी, टिकरिया, मनगवाँ, छटवाँ, बड़ी अरी, नातिन अरी इलुआ कुहरी, वेड़ाधाट, रामझरना, मारकुण्डी आदि।

चित्रकूट के मध्य में-

कामदगिरि, हनुमानधारा, देवांगना, टिकुलीपाथर, बांदरचुही, बॉकेसिद्ध, अनसूयातीर्थ लालापुर, कालीपाथर, बेड़ा पैघटा, जमुनहाई, लकडहाई, टोनहा अरी, भुवनपाथर, चुलहाई पाथर, अरखनाई अरी. चितहरा,रमपुरवा,बराँधा, पहाड़ सरभंगनाला, चिलपोंका, चरिकी, देवरा पहाड, सकरौन आदि ।

चित्रकूट के पश्चिम में -

बीरगढ़, मगरमोहा, पनिहरियों, चैर पचुआ, मनमौथी, छुटकू, पेपरादाॅदी, चिरकहाई, चुडेलन टीला, चुडैलिहा पथर, पाथरकछार आदि।

कालिंजर के समीप-

पातलगंगा, मृगधारा, नीलकंठ, कोडस, झूरापहाड, मरियादेव, भुइ्धारा, सुंगरघाटी, आमघाटी, पनघट, भवानीपुर अरी, सरबन बाबा की भूमठी, पुतेरिया पाटी, लकसेहाअरी, राय का रपटा, जवारिन अरी, आदि।

कतिपय महत्वपूर्ण स्थल निम्नवत हैं।

ऋषियन क्षेत्र-

चित्रकूट से मउ तहसील होते हुए उत्तर की ओर लगमग दस किलोमीटर यमुना नदी के तट पर बरहा कोटरा ग्राम है, किंवदन्ती के अनुसार ऋषियन का यह क्षेत्र महाभारत काल में बाणासुर की राजधानी था और बाणासुर का प्रख्यात दुर्ग यहां था। विशालकाय मंदिर एवं शिवलिंग तथा समीप ही दुर्ग के ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं। बरहा के समीप छोई नदी को पारकर तीन गुफाओं में राम कथा आश्रित शैल चित्र प्राप्त हुए हैं, जो पहाडी के उपर पहाड़ी के किनारे कमशः पूर्व की ओर लगभग अटठाइस हजार वर्ष पूर्व के हैं। बढ़ने पर रिसियन का पुराण प्रसिद्ध स्थान है जहाँ चैरासी हजार ऋषियों की तपस्या का वर्णन मिलता है। इस युग में देवरहा बाबा वहाँ तपस्यारत रहें हैं।

ऋषियन से चित्रकूट की सीमा प्रारम्भ हो जाती है यहाँ टेढीपहाडी, भूरादेई, चन्दना टॉप आदि स्थानों पर शैलरत युगल एक विशालकाय पशु पर सवार है और वह पशु स्वयं भी इसी प्रकार कीड़ा के लिए तत्पर है। यह चित्र अपने प्रकार का दुर्लभ चित्र माना जाता है। सीता पहाडी पर यौतुक किया के दो चित्र प्राप्त हुए हैं। बिलारी पहाडी में धनुषधारी महिला का सुडौल एवं वृहद स्पष्ट चित्र प्राप्त है। कोटरा के दक्षिण में सुगरहा पथरी इस क्षेत्र का सर्वाधिक समद्ध शैलाश्रय है।

कंधे और पूँछ पर लंबे बाल वाले अश्वों पर सवार आखेटकों के साथ एक महिला धनुर्धारी का गतिशील चित्र यहाँ का विशिष्ट चित्र है। समीप ही प्राचीन बांध के किनारे उत्खनन में प्राप्त मृदभाण्ड, ईंट ओर ताम्रास्त्र इस क्षेत्र की प्राचीनता को व्यक्त करते हैं।

मानिकपुर क्षेत्र -

सरहट, धारकुण्डी, गोद जैसे प्रागैतिहासिक स्थलों वाला यह क्षेत्र विन्ध्य का सर्वाधिक समृद्ध विरासत का धनी है यहाँ से लगभग 6 किमी0 दूर बरदहा नदी के किनारे में बिना पहिए की बौलगाडी का चित्र सिल्वेराड ने खोजा था। आज यह चित्र, कुछ मटमैली अवस्था में बचा हुआ है। सरहट से 2 किमी0 दक्षिण में एक गहरी उपत्यका में अख्वारूढ आखेटकों के चि.त्र तथा बांसाचूहा में हाथी , हिरन,पूजा प्रतीक आदि के 42 चित्र सुरक्षित ने है। चूल्ही में हाथ के अलंकरण, खांभा में युगल नृत्य के चित्र विशेष उल्लेखनीय है। दोंद में आठ शैलाश्रय है, जिनमें प्रायः दस हजार वर्ष का कालखण्ड समा गया है। वेडी पाथर, रिछाटा ढकेलवा पहाड, मयूर पहाडी, बेधक में पाषाण अस्त्र धारण किए मानव आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं।

धारकुण्डी क्षेत्र-

कल्याणपुर कस्बे से 6 किमी0 दक्षिण में प्राकृतिक वैभव एवक अध्यात्मिक गरिमा से पूर्ण इस स्थान के आस-पास कुल 7 शैलाश्रय हैं। यहाॅ की मुख्य अरी लगभग 60 मी0 लम्बी व 2 से 10 मीटर तक गहरी है नृत्य युगल चित्र यहाँ के विशिष्ट चित्र हैं। टिकरिया के समीप मनगथां में 10 शैलाश्रय है, जिनमें एक में महिला आखेटकों का दृश्य तत्कालीन सामाजिक जीवन का प्रवक्ता बना सुरक्षित है। ककरेरी में पारिवारिक जीवन के उल्लासपूर्ण चित्र है तो बेधक में बारहसिंघे के आखेट दृश्य हैं। निहीं, भैंसहठी, जगरिहाई में प्राकृतिक पुरा सम्पदा अपने परिपूर्ण सौन्दर्य का प्रदर्शन करती है।

चित्रकूट क्षेत्र-

उत्तर वेदकालीन सभ्यता का केन्द्र चित्रकूट पौराणिक आख्यानों में अतीव समादृत है। बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तार तथा जैन आगम की भगवती टीका में इसका सादर उल्लेख है। देवी भागवत के अनुसार यह इक्यावन में से एक शक्तिपीठ है और यहाँ देवी सीता के रूप में प्रतिष्ठित है। टिकुली पाथर देवांगना, बांदरचुही के अतिरिक्त अत्रि आश्रम में आकर्षक उटटकित मूर्तियाँ हैं। अत्रि आश्रम के उपर चन्द्रलांक गुफा में कुछ चित्र बने हैं। सर्वाधिक आकर्षक और रमणीक क्षेत्र बॉकेसिद्ध है, जहाँ के बारे में सीताजी लंका में हनुमानजी से चर्चा करती हैं और जहाँ कपिल मुनि की तपोरथली है।

- डाॅ. कमलेश थापक

(लेखक महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में एसोशिएट प्रोफेसर हैं)

 

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