तुलसी काव्य में समाज दर्शन
भारतीय संत काव्य परंपरा में महाकवि तुलसीदास का जो सम्मान है वह उनकी विश्रुत प्रतिभा का ही पुष्ट प्रमाण है। दशकों में तुलसी का काव्य अपने आदर्शों के बल पर यहां की आध्यात्मिक व सामाजिक धारा के स्वरूप निर्माण में अभूतपूर्व योगदान करता आ रहा है। रचनाकार अपने युग का प्रतिनिधि और भविष्य का दृष्टा ही नहीं सृष्टा भी होता है। वह वर्तमान यथार्थ को वाणी देता ही है भविष्य के यथार्थ का चितेरा होता है। इस संदर्भ में हम तुलसी को दोनो विशेषताओं से संपृक्त पाते हैं। तुलसी की कविताओं में सामाजिक मान्यताओं के प्रति प्रतिबद्धता और मूल्यवत्ता का संतुलन रूप दृष्टिगत होता है। तुलसी अपनी कविता में सामाजिक दायित्व बोध के प्रति पूर्ण सतर्क हैं। तुलसी का समा प्रदर्शन अपने युग का जीवंत स्वरूप है।
महाकवि तुलसी का आविर्भाव जिन परिस्थितियों में हुआ था हिंदू समाज की क्षीणता की परम परिणति थी। हिंदू समाज पर विदेशी संस्कृति का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। समाज में आदर्श परंपरा हतप्रभ थी। विभिन्न संप्रदाय अपनी ढपली से अपना राग अलाप रहे थे। यह बेसुरा राग जनता को आकर्षित करने में सक्षम न था। पंडित और विद्वान भी समाज से कट चुके थे। साधना के क्षेत्र में दंभियों का वर्चस्व था। उस समाज में किसी ऐसे व्यक्ति की अपेक्षा थी जो उस विखंडित समाज का मार्गदर्शन कर सके। तुलसी का आविर्भाव समाज की इसी रुग्णावस्था में संजीवनी सिद्ध हुआ था।
तुलसी के काव्य में राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी पक्षों के समन्वय का सफल प्रयास है। विदेशी शासन सत्ता में भी उस संत ने निर्भीकता के साथ तत्कालीन शासकों को ललकारने का दुस्साहस किया था। कहा था प्रजा का पालन करो, अन्यथा तुम्हे भी नरक जाना पड़ेगा।
‘‘जासुराज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवश्य नरक अधिकारी।‘‘
समाज के परम मुखापेक्षी जननायकों की पक्षपातपूर्ण नीति का अनुभव कर उन्हें फटकार बताते हुए तुलसी ने मुखिया का आदर्श प्रस्तुत किया था और कहा था कि
‘‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान कहुं एक,
चालइ पोसई सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।‘‘
तुलसी ने साम्प्रतिक यथार्थवादी रचनाकारों की भांति यथार्थ का साक्षात्कार कराने में जो रुचि दिखाई है वह उन्हें प्राचीन होतु होये भी आधुनिक युग बोध से मंडित करती है। उनकी काव्य भाषा का स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है।
‘‘हृदय कपट वर वेश धोरि, वचन कही है गीढ़ छोलि।
अबके लोग मयूर ज्यौं, क्यों मिलिये मन खोलि।।‘‘
तुलसी ने वर्तमान युग के लिए जिन राजनैतिक आदर्शों को प्रस्तुत किया है वे अब भी शासकों और राजनेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। प्रजा पर कर निर्धारण की नीति जो तुलसी ने सुझायी है वह वर्तमान अर्थशास्त्रियों के लिए भी अनुकरणीय है। उनके अनुसार प्रजा पर कर का भार अति न्यून होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने अच्छे शासक की समानता सूर्य से की है और कहते हैं कि
‘‘बरसत हरसत लोग सब, करपत लखै न कोय,
तुलसी प्रजा सुभाग से, भूप, भानु सो होय।‘‘
तुलसी का यह समाज दर्शन उनकी विशुद्ध समाजवादी दृष्टि का परिचायक है और आज के तथाकथित समाजवादी नेताओं के लिए शिक्षाप्रद है।
किसी भी देश में राष्ट्रनीति के साथ ही विदेशी नीति का निर्धारण भी महत्वपूर्ण होता है। राष्ट्र की रक्षा के लिए पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण अत्यावश्यक है।
तुलसी ने एक राष्ट्रीय कवि की भांति विदेशी शत्रु को नाव से उपमित किया है। पानी और नाव की शत्रुता होती है। पानी नाव को विदेशी वस्तु की तरह सिर पर धारण करता है परंतु अनुकूल अवसर पाने पर नाव को चारो तरफ से दबोच लेता है और डुबा देता है। तुलसी की पर राष्ट्रनीति का यह उदाहरण देखने योग्य है।
‘‘शत्रु सयानो सलिल ज्यों, राख शीश पर नाव।
डूबति लखि पग डगत लखि, चपरि चहूं दिशि धाव।।‘‘
वर्तमान युग में चल रही राजनीतिक आपाधापी और उठापटक पर तुलसी का दृष्टिकोण नितांत आधुनिक प्रतीत होता है। जिस पर समाजवादी राष्ट्र में शासन और राजनेता अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जातिगत संकीर्णता पर उतर आता है। उस राष्ट्र का पतन सुनिश्चित है। तुलसी का यह कथन आज भी वर्तमान शासन के लिए प्रासंगिक लगता है।
‘‘राजकरत बिनु काज ही टटहिं जे क्रूर कुठाट।
तुलसी ते कुरुराज ज्यों जैहें बारह बाट।।‘‘
तुलसी ने एक चिकित्सक की भांति समाज की नब्ज को देखा और परखा था। निदान करके समुचित उपचार का संकेत देना नहीं भूले, वे समाज के शुभ चिंतक और पथ प्रदर्शक कहलाने के अधिकारी हैं। तुलसी का समाज दर्शन जनकल्याण करने वाले एक समाजवादी, जनवादी, रचनाकार का दर्शन है। तुलसीदास का काव्य एवं समाजदर्शन मानव समाज के कल्याण में ही निहित है। तुलसी की वर्ण एवं आश्रय व्यवस्था में गहरी आस्था दिखाई पड़ती है। इसके कारण उन्हें मनुवादी और जातिवादी कहकर उनकी गहन अनुभूति का अपलाप नहीं किया जा सकता। यह व्यवस्था उन्हें उत्तराधिकार के रूप में अधिगत हुई थी। वे वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक शांति का आधार मानते हुए कहते हैं।
‘‘बरनाश्रम निज-निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय, शोक न रोग।।‘‘
वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित तत्कालीन समाज का वह सुखद रूप वर्तमान जनतंत्रात्मक व्यवस्थामें भी दुर्लभ है। तुलसी का विश्वास था कि आदर्श मान्यताओं पर चलने वाली राजनैतिक व्यवस्था में ही श्रेष्ठ समाज की कल्पना समय है। जिस समाज में ईष्र्या जातिद्वेष और विषमता होती है वह समाज प्रगति नहीं कर सकता। जहां प्रत्येक नागरिक प्रेम और सहानुभूति से रहता है वही आदर्श समाज है। तुलसी का कथन दृष्टव्य है।
‘‘बयरु न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।‘‘
तुलसी ने रामराज्य का जो सुखद रूप समाज के समक्ष उपस्थित किया है वह स्पृहणीय है। रामराज्य का एक चित्र दृष्टव्य है।
‘‘रामराज राजत सकत, धरम निरत नर नाहिं।
राग न रोष न दोष दुख, सुलभ पदारथ चारि।।‘‘
इधर देश की स्वाधीनता के पश्चात भारतीय समाज में ऐसी सामाजिक क्रांति का सूत्रपात हुआ है जिससे सारे समाज में उथल-पुथल मच गई है। भारतीय समाज में विषमता का विष चतुर्दिक फैल गया है। देश का कतिपय स्वार्थी राजनैतिक तत्वों ने पद और कुर्सी के प्रलोभन में देश की सांस्कृतिक मान्यताओं को ही ध्वस्त करने का बीड़ा उठा लिया है। उसी का भयंकर परिणाम देश में जातिवाद और वर्णवाद के रूप में स्पष्ट दिखता है। भले ही इस जातिवादी अवधारणा ने उन्हें उच्च पदों में आसीन होने का गौरव प्रदान किया हो परंतु भारतीय समाज का भविष्य विनाश के जिस कगार पर पहुंचेग उससे वे भी सुरक्षित नहीं रह सकेंगे। संभवतरू राष्ट्र के वे कर्णधार भविष्य की इस विभीषिका से बेखबर है। देश की जनता में वर्गभेद, जातिभेद का विष घोलने वाले अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने में सिद्धहस्त कहे जा सकते हैं। ऐसे ही तथाकथित बुद्धिवादी महाकवि तुलसी के काव्य में हरिजन द्वेष और जातिवाद भी ढूंढ लेते हैं। आजकल तो-
‘‘ढोल गवांर शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।।‘‘
जैसी पंक्तियों पर विशेष पंक प्रक्षेपण कर रहे हैं। तुलसी के संदर्भ के अनुसार इस अर्धाली में मात्र तीन को प्रताड़ना का अधिकारी बताया है। पहला ढोल, दूसरा गवांर शूद्र और तीसरा पशुवत नारी है। प्रताड़ना का आशय भी डांट, फटकार तक ही सीमित है। तुलसी जैसे संत के लिए क्या ब्राह्मण, क्या गवांर, शूद्र, क्या पशु, नारी सभी समान हैं। तुलसी की तो सारी मान्यताएं भक्ति सिद्धांत की तुला पर तुल कर ही निर्धारित होती हैं। ऐसी दशा में अपनी तुच्छ स्वार्थ सिद्धि के लिए पल्लवग्राही ढंग से तुलसी को हरिजन द्वेषी और जातिवादी सिद्ध करना सर्वथा अन्याय है। तुलसी जैसा साधक और मर्यादावादी कवि वर्तमान जननायकों की भांति जातिवाद के गंदे पचड़े में कैसे पड़ सकता है। तुलसी के विचार से ऊंच हो या नीच, ब्राह्मण हो या शूद्र जिस शरीर से राम भक्ति की साधना हो वही पूज्य है। जातिवाद के लिए वहां कोई स्थान नहीं है। तुलसी की घोषणा है-
‘‘तुलसी भगत सुपच भलो, जपै रैन दिन राम।
ऊंचो कुल केहि काम कौ, जहां न हरि को नाम।।‘‘
तुलसी का यह कथन उन आलोचकों के लिए दृष्टिदोष दूर करने का उत्तम अंजन सिद्ध हो सकता है। तुलसी की हरिजन प्रियता के अनेक उदाहरण उनके काव्य में देखे जा सकते हैं। जिनसे कवि के स्वस्थ समाज दर्शन और सर्वसमभाव की पुष्टि होती है।
बाबा बेनीमाधवदास कृत गोसांई चरित का सुपच प्रसंग तुलसी की निरीथ मानता और सुपच के चरणों की वंदना उनकी महानता का प्रमाण है। वे तो स्वयं कहते हैं।
‘‘मेरे जाति-पांति न चहौं। काहू की जाति-पांति।‘‘
अतरू तुलसी के समाजदर्शन को समझने के लिए गंभीर चिंतन और सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है। उस दृष्टि के अभाव में उन्हें वे ही लोग हरिजन द्वेषी और जातिवादी कह सकते हैं जो सिंहासन के लोभ में जातिवाद और हरिजन वाद के पंक में आंकते मग्न हो चुके हैं। जिनका स्वार्थ साधन इन्हीं भ्रामक उपपत्तियों पर संभव है। तुलसी के समाजदर्शन को परखनेके लिए आधुनिक चश्मा उतारकर नेत्रों में तत्कालीन मान्यतओं का चश्मा लगाना पड़ेगा तभी तुलसी और तुलसी साहित्य की सूक्ष्मता का दर्शन संभव है।
‘‘असमानस मानस चख चाहीं। ‘‘
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- डाॅ. बृज मोहन पाण्डेय
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, वाणी साहित्य संस्थान के संस्थापक एवं शुकदेव डिग्री काॅलेज, खागा, फतेहपुर के भूतपूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)