मानवता की मिशाल : भोलू ने दस वर्षों में डेढ़ हजार गुमनाम मृतकों को दी मुखाग्नि
हर इंसान की इच्छा होती है की उसकी मौत के बाद अपनों के कंधों का सहारा मिले और उनके अपनों के द्वारा ही अंतिम संस्कार हो..

हर इंसान की इच्छा होती है की उसकी मौत के बाद अपनों के कंधों का सहारा मिले और उनके अपनों के द्वारा ही अंतिम संस्कार हो, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तब होता है जब उनकी मौत हो जाती है और उसके करीब उनका कोई अपना नहीं होता है। ऐसे गुमनाम मृतकों के लिए बांदा के अमित सेठ भोलू मददगार बन गए हैं, जो लावारिस लाशां का अपनों की तरह अंतिम संस्कार करते हैं। 10 वर्षों में उन्होंने अब तक डेढ़ हजार गुमनाम व्यक्तियों की चिताओं को मुखाग्नि देकर मानवता की मिशाल पेश की हैं।
उत्तर प्रदेश के बांदा शहर में जनरल स्टोर की दुकान चलाने वाले 42 वर्षीय अमित सेठ भोलू दुकान में कम समाज सेवा में व्यस्त रहते हैं।किसी व्यापारी की समस्या हो या फिर किसी गरीब जरूरतमंद को मदद की जरूरत है, वह बिना समय गवाएं उनकी मदद जुट जाते हैं। ठीक इसी तरह से शहर में कोई भी लावारिस लाश हो, उसके बारिश बनकर अंतिम संस्कार करने मुक्तिधाम पहुंच जाते हैं। हर दूसरे तीसरे दिन मुक्तिधाम में लावारिस लाशे पहुंचती है जिनका अंतिम संस्कार उनके द्वारा ही किया जाता है।
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इस बारे में अमित सेठ भालू ने बताया कि हर पुलिस थाने और कोतवाली के अलावा पोस्टमार्टम हाउस में मेरा मोबाइल नंबर दर्ज है। जब कोई लावारिस लाश आती है तो उसकी सूचना मुझे मोबाइल फोन पर मिल जाती है। इससे बाद मुक्तिधाम समिति द्वारा गाड़ी भेज कर लाश श्मशान स्थल (मुक्तिधाम) मंगा ली जाती है। लकड़ी की व्यवस्था भी मुक्तिधाम की ओर से की जाती है,लेकिन अंतिम संस्कार में लगने वाली सामग्री मैं अपनी दुकान से लेकर जाता हूं।
जिसमें 300 -400 रुपये तक खर्च आता है, जिसे मैं स्वयं वहन करता हूं। इधर पिछले 3 वर्षों से इलेक्ट्रिक मशीन आ जाने से लकड़ी का खर्च भी नहीं लगता लेकिन अंतिम संस्कार की सामग्री अभी भी मेरे द्वारा ही व्यय की जाती है। उन्होंने बताया कि जब मैं चिता को मुखाग्नि देता हूं तब मेरे मन में मेरे अपनों की तस्वीर होती है और उसे लावारिस नहीं, अपना मान कर श्रद्धांजलि देते हुए अंतिम संस्कार करता हूं।
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- नदी में लावारिस लाशें देखकर मिली प्रेरणा
वह बताते हैं कि वर्ष 2010 में जब मैं केन नदी में स्नान करने जाता था तो नदी के नाव घाट से लेकर राजघाट व शंकर घाट में नदी के किनारे पानी में लावारिस लाश पड़ी होती थी। जिन्हें कुत्ते चील-कौवे नोंच -नोंच खाते थे।यह देख कर मेरा मन विचलित हो जाता था और तब मैंने संकल्प लिया कि लावारिस लाशों का मैं स्वयं अंतिम संस्कार करूंगा।
इस संकल्प को लेकर मुक्तिधाम समिति का गठन किया गया। मुक्तिधाम हरदौली घाट का मुझे अध्यक्ष बनाया गया। लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार का दायित्व भी मुझे ही सौंपा गया। इसके बाद वर्ष 2011 से मैंने लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करना शुरू किया। जो अनवरत जारी है, आज तक डेढ़ हजार गुमनाम व्यक्तियों का अंतिम संस्कार कर चुका हूं और यह सिलसिला मरते दम तक जारी रहेगा।
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- अब नदी में नहीं तैरती लावारिस लाशें
अमित सेठ बताते हैं कि नदी में लावारिस लाशों के कारण नदी का पानी प्रदूषित होता था, साथ ही नदी के किनारे घाटों में गंदगी रहती थी। हमने एक अभियान चलाकर लोगों को जागृत किया कि नदी में लाशों से प्रवाहित न करें,पुलिस को भी अपना मोबाइल नंबर दिया ताकि वह भी लावारिस लाश को नदी में न फेंके, हमारे जागरूकता अभियान का असर कुछ ही दिनों में दिखाई देने लगा और अब नदी में कोई भी लावारिस लाश नहीं नजर आती है। जो भी लावारिस लाश होती है वह मुक्तिधाम आ जाती हैं जिनका मेरे द्वारा उनका अंतिम संस्कार किया जाता है।
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- कोरोना काल में भी लावारिस के बारिश बने
कोरोना काल में जिनकी संक्रमण के कारण मौत हो जाती थी,उनके परिजन उन्हें छूने से भी परहेज करते थे। ऐसी कई लाशें मुक्तिधाम में पहुंची जिनका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं था। इन शवों का मैंने अंतिम संस्कार किया। इसमें मुक्तिधाम समिति के सदस्यों का भी योगदान रहा।
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- गरीबों के अंतिम संस्कार में भी मददगार
लावारिस लाशों के मददगार बन चुके अमित सेठ भोलू उन गरीबों की मदद करने में पीछे नहीं रहते, जिनके परिजनों की मौत होने के बाद अंतिम संस्कार के लिए पैसे तक नहीं होते। ऐसे गरीब व्यक्तियों के लिए वह अपनी दुकान से अंतिम संस्कार की सामग्री उपलब्ध कराते हैं।
ऐसे व्यक्तियों के लिए वह हमेशा अपनी मोटरसाइकिल में अंतिम संस्कार की सामग्री रखते हैं,जैसे ही उन्हें सूचना मिलती है वह गरीबों तक पहुंचा देते हैं। वह बताते हैं कि गरीबों की मदद हो या फिर लावारिस व्यक्तियों का अंतिम संस्कार, मुझे ऐसा करने से आत्मिक सुकून मिलता है।
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