केन किनारे सच्चे प्यार की साझा शहादत का गवाह है नटवीरन का मेला
बांदा के भूरागढ़ की केन नदी किनारे सच्चे प्यार के साझा शहादत का अदभुत किस्सा संजोए नटबली महराज का मंदिर..
बांदा के भूरागढ़ की केन नदी किनारे सच्चे प्यार के साझा शहादत का अदभुत किस्सा संजोए नटबली महराज का मंदिर जहां हर साल की 14 जनवरी को प्रेमी जोड़ों से गुलजार हो जाता है। अनूठी मोहब्बत को पैगाम देती हुई सदियों से इस सच्ची व अद्भुत प्रेम कहानी की एक बार फिर ताजा हो जायेगी।साथ ही गुरूवार को लगने वाले मेले में आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से लोग आकर लुत्फ उठाएंगे।
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बताते हैँ कि 651 वर्ष महोबा जिले के सुगिरा के रहने वाले नोने अर्जुन सिंह भूरागढ़ दुर्ग के किलेदार थे। यहां से कुछ दूर मध्य प्रदेश के सरबई गांव के एक नट जाति का 21 साल युवा बीरन किले में ही नौकर था। किलेदार की बेटी को इसी नट बीरन से प्यार हो गया और उसने अपने पिता से विवाह की जिद की।
लेकिन किलेदार नोने अर्जुन सिंह ने बेटी के सामने शर्त रखी कि अगर बीरन नदी के उस पार बांबेश्वर पर्वत से किले तक नदी सूत (कच्चा धागे की रस्सी) पर चढ़कर पार कर किले तक आए, तो उसकी शादी राजकुमारी से कर दी जाएगी।
प्रेमी ने ये शर्त स्वीकार कर ली और खास मकर संक्रांति के दिन वो सूत पर चढ़कर किले तक जाने लगा। प्रेमी ने सूत पर चलते हुए नदी पार कर ली, लेकिन जैसे ही वो भूरागढ़ दुर्ग के पास पहुंचा किलेदार नोने अर्जुन सिंह ने किले की दीवार से बंधे सूत को काट दिया।
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बीरन ऊंचाई से चट्टानों में गिर गया और उसकी वहीं मौत हो गई। किले की खिड़की से किलेदार की बेटी ने जब अपने प्रेमी की मौत देखी तो वो भी किले से कूद गई और उसी चट्टान में उसकी भी मौत हो गई। किले के नीचे ही दोनों प्रेमी युगल की समाधि बना दी गई, जो बाद में मंदिर में बदल गई।
मनोकामना होती है पूरी
मंदिर के पुजारी बाबा कामता नाथ ने बताया कि 651 साल पहले नट जाति के बीरन बाबा बचपन से ही तपस्वी थे और राजा की बेटी के प्रेम में सूत पर चलते हुए नदी पार की थी।लेकिन राजा नोने अर्जुन सिंह ने धोखे से रस्सी काट दी, जिससे नटबाबा चट्टान में गिर पड़े और शरीर त्याग दिया था।लेकिन इस स्थान में वो अमर होकर वास करते हैं और उन्हीं के श्राप से आज भी ये किला वीरान पड़ा है। पुजारी का कहना है कि बाबा हर श्रद्धालु की मनोकामना पूरी करते हैं।
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भूरागढ़ दुर्ग
भूरागढ़ दुर्ग जिसमे क्रांति के दौरान बाँदा की विद्रोही सेना के व अन्य 3000 क्रांतिकारी शहीद हुए थे,के भी अवशेष हैं। हर वर्ष यहां मेला लगता है। दुर्ग में कई क्रांतिकारियों के नाम लिखें हैं। जिसे पढ़कर सीना गर्व से भर जाता है। वर्तमान में सरकार द्वारा इस दुर्ग के संरक्षण की आवश्यकता है।
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