बुन्देलखण्ड के किसानों व पशुपालकों के लिए वरदान साबित होगी ‘डकवीड की खेती’

बांदा, भारत में पोखरों व छोटे तालाबों में उगने वाली चोई जैसी खरपतवार से मिलती जुलती थाईलैंड में डकवीड होती है, जो भारत में भी आसानी..

बुन्देलखण्ड के किसानों व पशुपालकों के लिए वरदान साबित होगी ‘डकवीड की खेती’
डकवीड की खेती (Duckweed Farming)

बांदा, भारत में पोखरों व छोटे तालाबों में उगने वाली चोई जैसी खरपतवार से मिलती जुलती थाईलैंड में डकवीड होती है, जो भारत में भी आसानी से उगाई जा सकती है।  मुर्गी, बतख ,मुर्गी, मछली व पशुओं के लिए सस्ता व सुलभ आहार है।इस पर उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड में बांदा के बुंदेलखंड जैविक कृषि फार्म मे खेती हो रही है। कानपुर व दिल्ली में रिसर्च चल रहा है कि यह जड़ीबूटी के रूप में इंसानों में कितनी कारगर हैं।

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यहां आम तौर पर डकवीड को एक जलीय खरपतवार माना जाता है। लेकिन रिसर्च में यह सिद्ध हो रहा है कि यह एक जड़ीबूटी है। बेन-गुरियन यूनिवर्सिटी ऑफ द नेगेव (बीजीयू), इजरायल ने हाल ही में ओवरऑल हेल्थ पर डकवीड के प्रभावों का अध्ययन किया और पाया कि यह ब्लड शुगर के स्तर को कंट्रोल करने में तथा अन्य बीमारियों में काफी लाभदायक है।

डकवीड की खेती (Duckweed Farming)

इसमे 25 से 35 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन होता है, सभी जरूरी अमीनो एसिडस, डाइटरी फाइबर, विटामिन ए, विटामिन बी कॉम्प्लेक्स, विटामिन बी 12, विटामिन सी, फ्लेवोनॉयड, पॉलीसेकेराइड, टैनिन, लोहा और जस्ता जैसे महत्वपूर्ण खनिज तत्व आदि पाए जाते है। इससे तैयार की गई कम्पोस्ट ( प्राकृतिक खाद ) में पोषक तत्वों की मात्रा अधिक होती है, जिसकी गुणवत्ता उच्च क्वालिटी की होती है।

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इस बारे में बुंदेलखंड जैविक कृषि फार्म बांदा के संचालक मोहम्मद असलम ने बताया कि यह अजोला से अच्छा चारा है जो खाने में मुलायम होता है और इसके उगाने में बहुत कम खर्च आता है। उन्होने बताया कि लगभग 2016-17 में एक एग्रीकल्चरल टूर पर देश से बाहर थाईलैंड देश की यात्रा पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

डकवीड की खेती (Duckweed Farming)

इस भ्रमण के दौरान वहां के किसानों से कृषि से सम्बंधित बहुत ही रोचक व अद्भुत जानकारिया सीखने को मिली। तभी वहां मैंने एक किसान के खेत पर हमारे भारत में पोखरों व छोटे तालाबो में उगने वाली चोई जैसी मिलती जुलती चीज देख कर उसके बारे मे पूँछा तो पता लगा इसे थाईलैंड में बतख बड़े चाव से खाती है, इसीलिए इसे डकवीड ( पेत किन या खांग ) कहते है। उनके यहां इसे बत्तखों के साथ साथ मछलियों को भी खिलाते है।

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शुरू की कृषि फार्म में डकवीड की खेती मैं वापस आया तो थोड़ी सी डकवीड वहा लाया। मैंने फार्म पर एक गड्ढा बनाकर डकवीड की खेती प्रारम्भ की । देखने मे आया कि यह अजोला से तीव्र गति से वृद्धि करती है। इसकी पत्तियां अजोला से छोटी तथा मुलायम होती है , जिसे मुर्गियां, बतख व मछलियां खाना पसंद करती है।हमने अपनी गायो व अन्य पशुओं को भी इसे देना शुरू किया और अपने फार्म पर सभी के डेटा लेना प्रारम्भ किया।

डकवीड की खेती (Duckweed Farming)

अपने फार्म पर पशुओं, मुर्गियों, मछलियों को उनके दैनिक राशन के साथ डकवीड देना शुरू किया तथा लगातार प्रेक्षण में देखा गया कि पशुओं के दूध उत्पादन में 5 से 10 व मुर्गियों के अंडे देने में 10 से 15 प्रतिशत व मांस उत्पादन में भी लगभग 10 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई। इसके साथ ही पशु आहार के खर्चे में कमी हुई तथा शुद्ध लाभ अधिक हुआ।

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  • कम लागत में उच्च गुणवत्ता युक्त आहार

एमएससी(साइंस) 38 वर्षीय असलम ने बताय कि हमारे फार्म पर पिछले कुछ वर्षों से अजोला व डकवीड के तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया है कि डकवीड को हमारे बुंदेलखंड क्षेत्र में उगाना अधिक सरल है, यह ज्यादा तेज गति से वृद्धि करता है ,हरा चारा तुलनात्मक अधिक मिलता है। बतख, मुर्गियां व पशु इसे बड़े चाव से खाते है। तथा इसकी सहायता से पशुओं के खाने की लागत में कमी आती है तथा कम लागत में उच्च गुणवत्ता युक्त आहार उपलब्ध हो रहा है। इसका उपयोग करके कम लागत में उच्च गुणवत्तायुक्त आहार प्राप्त कर सकते है।

उन्होंने बताया कि थाईलैंड में लोग डकवीड को सलाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं।यहां इंसानों में किस तरह उपयोगी है उसके बारे में कानपुर की डॉ कल्पना परिहार रिसर्च कर रही है। दिल्ली में डॉ. इरफान कुर्सा अनुसंधान कृषि फार्म में रिसर्च कर रहे हैं।इस बारे में जिला कृषि अधिकारी बांदा डॉ प्रमोद कुमार ने बताया कि यह भारत में पाए जाने वाले अजोला की प्रजाति की तरह होता है। मोहम्मद असलम प्रगतिशील किसान है,खेती में नए-नए प्रयोग करते हैं। डकवीड की खेती मैंने नहीं देखी,देखने के बाद ही इस बारे में कुछ बता सकता हूं।

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