हॉक़ी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की पुण्यतिथि पर विशेष 03 दिसंबर

खेल जगत में अपनी अद्वितीय प्रतिभा से भारत का नाम विश्व पटल पर चमकाने वाले मेजर ध्यानचंद की पुण्यतिथि...

हॉक़ी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की पुण्यतिथि पर विशेष 03 दिसंबर

झांसी। खेल जगत में अपनी अद्वितीय प्रतिभा से भारत का नाम विश्व पटल पर चमकाने वाले मेजर ध्यानचंद की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। भारतीय हॉक़ी के स्वर्णिम युग का नेतृत्व करने वाले ध्यानचंद का जीवन संघर्ष और समर्पण की मिसाल है।

29 अगस्त 1905 को प्रयागराज में जन्मे ध्यानचंद के पिता सोमेश्वर दत्त सिंह भारतीय सेना में कार्यरत थे। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण, ध्यानचंद मात्र 14 वर्ष की उम्र में सेना में बाल सैनिक के रूप में भर्ती हो गए। यहीं उन्होंने खेलों में रुचि ली और उनकी मेहनत ने उन्हें हॉक़ी के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

हॉक़ी के जादू की शुरुआत

सैनिक छावनी में अभ्यास के दौरान सूबेदार बाले तिवारी ने ध्यानचंद की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें हॉक़ी खेलने के लिए प्रोत्साहित किया। तपती धूप हो या चांदनी रात, ध्यानचंद का अभ्यास कभी नहीं रुका। उनकी मेहनत और लगन को देखकर उनके कोच ने भविष्यवाणी की थी कि ध्यानचंद अपनी चमक से हॉक़ी के मैदान पर पूरी दुनिया को रोशन करेंगे।

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अंतर्राष्ट्रीय सफलता का सफर

1926 में न्यूजीलैंड दौरे पर भारतीय सेना की हॉक़ी टीम में चयनित होकर ध्यानचंद ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। इस दौरे में टीम ने 21 मैच खेले, जिनमें से 80 गोल ध्यानचंद की स्टिक से निकले। यह सफलता भारत के ओलंपिक सफर का आधार बनी।

1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारत ने ध्यानचंद के नेतृत्व में स्वर्ण पदक जीता। फाइनल में मेजबान नीदरलैंड को हराकर भारत ने अपनी पहली बड़ी जीत दर्ज की। इसके बाद 1932 लॉस एंजेलेस और 1936 बर्लिन ओलंपिक में भारत ने स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया।

हिटलर को ठुकराया प्रस्ताव

1936 के बर्लिन ओलंपिक में मेजर ध्यानचंद की टीम ने जर्मनी को 8-1 से हराया। हिटलर ने उन्हें जर्मनी की नागरिकता और सेना में उच्च पद का प्रस्ताव दिया, जिसे ध्यानचंद ने विनम्रता से ठुकराते हुए कहा, "मैं अपने देश में खुश हूं। मेरी सेवाएं भारत के लिए हैं।"

संन्यास और विरासत

1948 के लंदन ओलंपिक से पहले उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय हॉक़ी से संन्यास ले लिया। उनका आखिरी दौरा पूर्वी अफ्रीका में था, जहां उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि आयोजकों ने टीम को निमंत्रण में लिखा, "यदि ध्यानचंद टीम में हैं, तभी टीम भेजें।"

ध्यानचंद को उनकी उपलब्धियों के लिए 1956 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

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अंतिम विदाई

कैंसर से जूझते हुए 3 दिसंबर 1979 को उन्होंने एम्स के जनरल वार्ड में अंतिम सांस ली। उनका अंतिम संस्कार झांसी के हॉक़ी मैदान पर सैन्य सम्मान के साथ किया गया।

मेजर ध्यानचंद ने न केवल भारत को स्वर्णिम हॉक़ी युग दिया, बल्कि हर खिलाड़ी को प्रेरणा का स्रोत भी प्रदान किया। उनकी स्मृति को नमन करते हुए पूरा देश उनकी उपलब्धियों और योगदान को सलाम करता है।

भावपूर्ण श्रद्धांजलि!

बृजेंद्र यादव, खेल विशेषज्ञ... 

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