विषपान करने के बाद भोलेनाथ ने कालिंजर में ली थी शरण, आज भी रिसता है विष
बुंदेलखंड के बांदा जिले में जमीन से 800 फीट ऊपर पहाड़ियों पर मौजूद किला कालिंजर को कालजयी कहा जाए तो गलत नहीं ....
बांदा,
सावन में लगता है शिव भक्तों का मेला
बुंदेलखंड के बांदा जिले में जमीन से 800 फीट ऊपर पहाड़ियों पर मौजूद किला कालिंजर को कालजयी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस किले का 18 पुराणों और चारों वेदों में जिक्र है। इस किले में नीलकंठ महादेव मंदिर है। जहां समुद्र मंथन से निकले विष के रहस्य छिपे हुए हैं।
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बुंदेलखण्ड विकास पर्यटन समिति के अध्यक्ष श्याम जी निगम ने बताया कि लोक मान्यता है कि, महादेव ने विषपान के बाद यहीं तपस्या कर विष के प्रभाव को खत्म कर काल की गति को मात दी थी।
पांच फीट ऊंचा शिवलिंग विश्व का अनूठा और इकलौता है, जिसे विष पसीना बनकर रिसता रहता है। यहां सावन के महीने में शिव भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है। बांदा के अलावा समीपवर्ती मध्य प्रदेश के जनपदों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु जलाभिषेक करने आते हैं।
उन्होंने बताया कि कालिंजर का भारत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। रणनीतिक रूप से स्थित इस किले पर प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक काल में कब्जा करने के लिए कई निर्णायक लड़ाईयां लड़ी गईं, लेकिन केवल सैन्य पहलू से ही कालिंजर का महत्व नहीं है। यह स्थान सांस्कृतिक और धार्मिक गौरव का भी प्रतीक है।
श्री निगम ने बताया कि कालिंजर में प्राचीन नीलकंठ के प्रसिद्ध मंदिर, सबसे ऊंची ‘काल भैरव’ की मूर्ति और और आसपास की मूर्तियां यहां के महत्व को बढ़ाती हैं। कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है।
इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। इतिहासवेत्ता बताते हैं कि यहां शिव ने समुद्र मंथन के बाद निकले विष का पान किया था। किले में कई मंदिर हैं जो तीसरी-5 वीं शताब्दी के गुप्त वंश के हैं।
उन्होंने बताया कि कालिंजर के किले पर जिन राजवंशों ने शासन किया, उसमें दुष्यंत-शकुंतला के बेटे भरत का नाम सबसे पहले आता है। इतिहासकारों के मुताबिक, भरत ने चार किले बनवाए थे, जिसमें से कालिंजर का सबसे ज्यादा महत्व है।
1249 ई. में यहां हैह्य वंशी कृष्णराज का शासन था तो चौथी सदी में ये नागों के अधीन रहा। इसके बाद सत्ता गुप्त वंश के हाथों में पहुंच गई। फिर यहां चंदेल राजाओं का शासन रहा। इसका अंत 1545 ई. में हुआ।
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