दुनिया का सबसे खूबसूरत हिस्सा हैं महिलायें
अगर यह मानें कि ईश्वर रूपी सत्ता ने इस कायनात को रचा है। सजीव और निर्जीवों का जो सृजन उसने किया उसमें ईश्वर..
@राकेश कुमार अग्रवाल
अगर यह मानें कि ईश्वर रूपी सत्ता ने इस कायनात को रचा है। सजीव और निर्जीवों का जो सृजन उसने किया उसमें ईश्वर की सबसे खूबसूरत कृति महिला की रचना है। महिलायें विविध रूपों में इंसानी जिंदगी से लेकर सृष्टि के विकास, संवर्धन व उन्नयन की सबसे बडी वाहक हैं।
इंसान की फितरत उत्सवधर्मिता की है। उसे एकरूपता से निजात पाने के लिए जीवन में हमेशा बदलाव की चाहत रही है। कुछ बदलाव ऐसे रहे जो संस्थागत रूप ले गए और सैकडों वर्षों बाद भी किसी न किसी रूप में वे विद्यमान हैं। ऐसा ही एक उत्सवजीवी पर्व है जो दुनिया की आधी आबादी को समर्पित है।
जी हां ! यह पर्व है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। महिलाओं के लिए केवल एक दिन ही क्यों ? उनकी मौजूदगी, उनके एहसास के बिना तो एक पल भी भारी होता है। कभी मां के रूप में, कभी बहन के रूप में, कभी सहेली के रूप में, कभी अर्धांगिनी के रूप में तो कभी गुरु के रूप में एक महिला हम आपके इर्द गिर्द जन्म के बाद से ही विद्यमान रही है।
उच्च शिक्षा, योग्यता व काबिलियत के बल पर महिलाओं ने घर की चौखट से बाहर निकलकर सार्वजिनक जीवन में मेधा के बल पर अपनी जगह बनाई है। आज विज्ञान, कला, साहित्य, चिकित्सा, अनुसंधान, फौज, शिक्षा व राजनीति हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपना डंका बजाया है।
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दरअसल सौ - डेढ सौ साल पहले की दुनिया महिलाओं के लिए इतनी सहज नहीं थी। तब प्रगतिशील पश्चिमी देशों में भी महिलाओं के हालात बहुत विकट थे। उनके काम के घंटों, वेतन में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा विसंगतियां थीं। उन्हें मताधिकार भी हासिल नहीं था।
लगभग 113 वर्ष पहले 1908 में इसके लिए संघर्ष की शुरुआत हुई जब 15000 महिलाओं ने न्यूयार्क शहर में समाजवादी राजनीतिक कार्यक्रम के तहत मार्च निकाला और बेहतर वेतन, काम के समान घंटे व मताधिकार के लिए आवाज बुलंद की।
28 फरवरी 1909 को सोशलिस्ट पार्टी के आहवान पर सबसे पहले महिला दिवस मनाया गया। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगेन सम्मेलन में इसे अंतर्राष्ट्रीय दर्जा मिला। जर्मनी की एक्टीविस्ट क्लारा जेटकिन के प्रयासों से इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस ने 1910 में 17 देशों की एक सैकडा महिलाओं की मौजूदगी में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था।
पहला अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 19 मार्च 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी व स्विटजरलैण्ड में मनाया गया। 1921 से प्रतिवर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा। 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिवस को मान्यता प्रदान कर दी। एवं 1996 से प्रतिवर्ष इस दिवस को थीम पर मनाया जाने लगा। इस वर्ष की थीम है ईच फार इक्वल।
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महिलाओं को हमेशा से घर के अंदर व बाहर दोहरी भूमिकाओं व जिम्मेदारियों को निभाना पडा है। कुदरत ने महिलाओं में लचीलापन व दृढता दो ऐसी खूबियां जन्मजात दी हैं जिसके चलते विपरीत परिस्थितियों एवं हालातों को भी वे अपने अनुकूल बना लेती हैं या फिर उनके मुताबिक खुद को ढाल लेती हैं।
बीता पूरा वर्ष देश व दुनिया में कोविड 19 ( कोरोना वायरस ) की भेंट चढ गया। जब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस का खौफ तारी था तब भी महिलाओं ने अपनी अभूतपूर्व जीवटता का परिचय देते हुए घर व बाहर दोनों मोर्चों को सहजता से संभाला।
मेडीकल फील्ड में सेवायें दे रहीं डाॅक्टर, नर्स, पैथोलाजिस्ट या रेडियोलाजिस्ट हों या फिर पुलिस में सेवाएं दे रही महिलाओं द्वारा लाॅकडाउन का पालन कराना, स्वच्छता सेवा में लगी सफाईकर्मी हों या फिर घर पर रहकर ऑनलाइन टीचिंग कर रही शिक्षिकायें हों या फिर विभिन्न सेवाओं में कार्यरत महिलाओं ने वर्क फ्राम होम कर अपनी सेवाओं को जारी रखा।
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तो हाउसवाइफ का किरदार निभा रही महिलाओं ने घर पर ही रहकर खाना खजाना से लेकर बच्चों को पढाना व बिना किसी नौकर चाकर के घरेलू जिम्मेदारियों का सफलता पूर्वक निर्वहन किया है। कोरोना से हुई मौतों के आँकडों पर भी अगर नजर डाली जाए तो महिलाओं की मौतें भी पुरुषों से कम रही है।
मी टू, यौन शोषण, गर्भपात, घरेलू हिंसा, पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी जैसे तमाम विषयों पर महिलायें अभी भी जूझ रही हैं। फिर भी महिलाओं ने अपने जुझारूपन से नई दुनिया में जो पहचान बनाई है वो उसकी सच्ची हकदार हैं। महिलाओं को एक दिन के दायरे में बाँधना कतई उचित नहीं है।
वे इस कायनात का सबसे खूबसूरत, सृजनशील, रचनात्मक किरदार हैं। वात्सल्य, श्रृंगार, करुणा जैसे रसों की अनुभूति महिलाओं के बिना नहीं समझी जा सकती। जरूरत है उन्हें मौकों की। उन्हें पंख कुदरत ने दिए हैं। बस उडने के लिए उन्हें आकाश आप दे दो..
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