बुन्देलखण्ड का दिवारी नृत्य
बुन्देलखण्ड की मिट्टी में अभी भी पुरातन परम्पराओं की महक रची बसी है। बुन्देलखण्ड का दिवारी नृत्य समूचे देश में अनूठा है। इसे दिवारी पाई डण्डा के नाम से भी जानते हैं। इसमें गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण, संवर्द्धन, पालन के संकल्प का इस दिन कठिन व्रत लिया जाता है। परम्परागत पीढ़ी दर पीढ़ी प्रदर्शित किया जाने वाला यह नृत्य बुन्देलखण्ड के अतिरिक्त कहीं भी देखने को नहीं मिलता। भाद्रपद की पंचमी से पौष, माघ माह की संक्रान्ति तक यह नृत्य किया जाता है। बुन्देलखण्ड के गांव-गांव में यह पारम्परिक नृत्य होता है।
पौराणिक व धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस नृत्य को भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में मथुरा के राजा कंस का वध करने के बाद किया था। यह नृत्य नटवर भेषधारी श्रीकृष्ण की लीला पर आधारित है। गोवर्धन पर्वत को उठाने के बाद ग्वाल बालों व राधा रानी की सहेलियों के साथ किए गये नृत्य की मनोहर झांकी को दिवारी में दिखाया जाता है। नृत्य में लाठी चलाना, आत्मरक्षार्थ हेतु वीरता प्रतीक है। एक साथ कमर मटकाना तथा बलखाते हुए नाचना इसकी पहचान है।
रंग-बिरंगे फुंदने वाले कपड़े, पांव में घुंघरू तथा सिर में बंधी पगड़ी इस नृत्य की वेशभूषा है। छोटे छोटे डण्डे लेकर एक ताल में तथा हाथ से हाथ मिलाते हुए नृत्य करने पर एक स्वर की ध्वनि निकलती है। इस नृत्य में घुंघरुआंे की छमक व डण्डे की चटकार एकसाथ सुनाई देती है। ढोल या नगड़िया बजाई जाती है, ढोलक की थाप के साथ नृत्यकार में स्वतः ओज पैदा होता है।
दिवारी गाने वाले सैकड़ों ग्वाले लोग गांव नगर के संभ्रांत लोगों के दरवाजे पर पहुंचकर चमचमाती मजबूत लाठियों से दिवारी खेलते हैं। उस समय युद्ध का सा दृश्य नजर आता है। एक आदमी पर एक साथ 18-20 लोग एक साथ लाठी से प्रहार करते हैं, और वह अकेला खिलाड़ी इन सभी के वारों को अपनी एक लाठी से रोकता है। इसके बाद बाकी लोगों को उसके प्रहारों को झेलना होता है। चट-चटाचट चटकती लाठियों के बीच दिवारी गायक जोर-जोर से दिवारी गीत गाते हैं और ढोल बजाकर वीर रस से युक्त ओजपूर्ण नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। दिवारी गाने व खेलने वालों में मुख्यतः अहीर, गड़रिया, आरख, केवट आदि जातियों के युवक ज्यादा रुचि रखते हैं।