काला अध्याय आपातकाल : विकास के 70 सालों पर भारी यातनाओं के वह दो वर्ष

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून को काले दिवस के रूप में याद किया जाता है। इसी दिन 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री....

काला अध्याय आपातकाल : विकास के 70 सालों पर भारी यातनाओं के वह दो वर्ष

झांसी, 

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून को काले दिवस के रूप में याद किया जाता है। इसी दिन 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में लोकतंत्र को कुचल कर आपातकाल की घोषणा की थी। देश के नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए थे। देश के विपक्षी दल के नेताओं को कारागार में ठूस दिया गया था। देश के अंदर एक भयावह माहौल पैदा कर दिया गया था,लेकिन देश में विपक्षी दल के नेताओं ने हार नहीं मानी। लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए अपना संघर्ष जारी रखा। शायद देशवासियों को कांग्रेस के 70 वर्षों की विकास यात्रा पर यातनाओं के वे 2 वर्ष ज्यादा भारी प्रतीत होते हैं। उन दिनों को याद करते हुए आज भी उस समय के साक्षी सिहर उठते हैं।

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हुआ यूं कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ एक फैसला दिया था। फैसले में कहा गया था कि 1971 का चुनाव जो इंदिरा गांधी ने लड़ा, उसमें सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया गया था। इस कारण हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को पद से हटाने और 6 साल के लिए चुनाव न लड़ने की हिदायत दी। इसके खिलाफ इंदिरा गांधी का अहंकार जाग गया और उन्होंने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। इस पर 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को ही मान्यता देते हुए यह जरूर कहा कि इंदिरा गांधी पद पर रह सकती हैं।

दरअसल 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े राजनारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सरकारी साधनों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाते हुए उन पर मुकदमा दर्ज कराया था। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश के विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी से प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने की मांग कर डाली। लेकिन वह और उनके छोटे बेटे संजय गांधी सत्ता के लोलुपता में पद छोड़ने को तैयार नहीं थे। इस पर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संघर्ष का बिगुल फूंका गया। जिसका परिणाम यह रहा कि देशभर में हड़ताल शुरू हो गई। लोग इंदिरा गांधी का त्यागपत्र मांगने को सड़कों पर उतर आए जिसके फलस्वरूप उन्होंने देश भर के विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करवा कर जेल में ठूंस दिया और दूसरे दिन मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर आपातकाल के विधेयक को पास करवा कर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी करवा लिए। घोषणा पहले की गई उसके बाद राष्ट्रपति की सहमति ली गई।

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आपातकाल के दौरान नसबंदी का इतना भयानक दौर चला कि 1 साल में 60 लाख लोगों की नसबंदी कर डाली। इस कारण लोगों ने घरों से निकलना तक बंद कर दिया। आलम यह था कि जो जहां प्रशासन को मिलता था बसों से खींचकर उसकी नसबंदी करा देते थे । हालात बद से बदतर हो गए। इस पर जयप्रकाश नारायण ने सत्याग्रह कर जेल भरने का आह्वान कर दिया। उनके आह्वान पर लाखों नौजवान छात्र शक्ति जेलों में पहुंच गए और यहीं से परिवर्तन का दौर भी शुरू हुआ। इसके बाद इंदिरा गांधी को लगा कि अब उनका पद पर रहना मुश्किल है इसलिए 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटा दिया गया। पूरे संघर्ष में छात्र शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका रही और उन्हीं को बाद में लोकतंत्र सेनानी घोषित कर दिया।

छात्रों और युवाओं ने देश में लोकतंत्र बचाने के लिए अपने भविष्य को भी दाव पर लगाया और जेल जाना स्वीकार किया। लाखों छात्रों ने जेल में ही परीक्षा केंद्र बनाया और वही से परीक्षा दी लेकिन लोकतंत्र के लिए बचाने के लिए संघर्ष जारी रखा और इसी का सुखद परिणाम आज देश की जनता को देखने को मिल रहा है कि वह लोकतंत्र में सांस ले पा रही है।

इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार रामसेवक अडजरिया बताते हैं कि कांग्रेस जिन 70 सालों के विकास का दावा करते नहीं थकती आपात काल के दो वर्षो ने उनके दावों की हवा निकाल दी। और उसी तानाशाही का दंश कांग्रेस आज भी झेल रही है।

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हिस

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